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उगविहारी राजस्थानरत्न विदुषी पूज्य साध्वीवर्या श्री दयाश्रीजी महाराज
लेखिका : सा. पद्मप्रभाश्री
परिवर्तिनि संसारे मूतः को वा न जायते?
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिं ॥ परिवर्तनशील इस संसारमें अनेक प्राणी आते हैं और संसार से विदा लेते हैं, परंतु जन्म तो उन्हीं महान आत्माओं का सार्थक है जो अपनी सुवास फैलाकर खुद तो अमर बन जाते हैं, अपने कुल-वंश को भी गौरव प्रदान कर जाते हैं। चरित्रनायिका परम पूज्य श्री दयाश्रीजी महाराज ऐसी ही अपने कुल-जन्मभूमि और गच्छ का गौरव बढ़ानेवाली महान आत्मा थीं।
पू. दयाश्रीजी म.सा. का जन्म लायजा (कच्छ) में वि.सं. १९४६ के भादरवा सुदि २ को हुआ था। इनके पिताजी का नाम था खींअशीभाई और माता का नाम गोमीबाई था। माता के सुसंस्कारों से जीवन धर्म से ओतप्रोत हुआ और छोटी उम्र में वैराग्यभाव जाग ऊठा।
मुनिमंडलाचार्य गणाधीश गुरुदेव पूज्य श्री कुशलचन्द्रजी महाराज साहेब के आज्ञावर्तिनी परम पूज्य साध्वीवर्य श्री हेमश्रीजी म.सा. की प्रेरणा प्राप्त हुई, वैराग्य का झरना प्रवाहित हुआ। आखिर माता-पिता की संमति पाकर १५ वर्ष की आयु में सं. १९६१ महा वदि १२ को भुजपुर (कच्छ) में संयम स्वीकार कर प.पू. सा. श्री प्रमोदश्रीजी म.सा. की शिष्या बनीं। क्रियापात्र एवं संयमनिष्ठ गुरुवर्या और गुरुबहनों के संग में दयाश्रीजी ज्ञानाभ्यास तथा संयमाभ्यास में अग्रसर होती गईं। दीर्घ संयमी शतायुधारक शांतमूर्ति पूज्य श्री विवेकश्रीजी म. दयाश्रीजी की बड़ी गुरुबहन होती थीं।
चरित्रनायिका कुशाग्र बुद्धि एवं दृढ मनोबल की धनी थीं। 'यथानामा तथागुणाः' इस उक्ति को पू. दयाश्रीजी म. सत्य सिद्ध करते थे - दया-करुणा से इनका हृदय भरपूर था, तो दूसरी ओर संयम की मर्यादा निभाने में उतने ही कठोर थे।
સંઘસૌરભ
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