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प्रो० सागरमल जैन
परम्परा में जो कुछ भी जानकारी प्राप्त हुई है वह यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई है और इतना निश्चित है कि यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री अन्तकृदशा में प्रचलित रही हो और तत्सम्बन्धी जानकारी अनुश्रुति के माध्यम से तत्त्वार्थवार्तिककार तक पहुंची हो। तत्वार्थवार्तिककार को भी कुछ नामों के सम्बन्ध में अवश्य ही भ्रान्ति है, अगर उसके सामने मूलग्रन्थ होता तो ऐसी भ्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती। जमाली का तो संस्कृत रूप यमलोक हो सकता है किन्तु भगाली या भयाली का संस्कृत रूप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता। इसी प्रकार किंकम का किष्कम्बल रूप किस प्रकार बना यह भी विचारणीय है । चिल्वक या पल्लतेत्तोय के नाम का अपलाप करके पालअम्बष्ठपुत्त को भी अलग-अलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्तिककार के समक्ष मूल ग्रन्थ नहीं है केवल अनुश्रुति के रूप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है। जहाँ श्वेताम्बर चूर्णिकार
और टीकाकार विषय वस्तु सम्बन्धी दोनों ही प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं वहां दिगम्बर ( आचार्यों को मात्र प्राचीन संस्करण ) उपलब्ध अन्तकृदशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो कि छठी शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी कोई जानकारी नहीं थी। अतः उनका आधार केवल अनुश्रुति था ग्रन्थ नहीं। जब कि श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों का आधार एक ओर ग्रन्थ था तो दूसरी ओर स्थानांग का विवरण । धवला और जयधवला में अन्तकृदशा सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध है वह निश्चित रूप से तत्त्वार्थवातिक पर आधारित है। स्वयं धवलाकार वीरसेन 'उक्तं च तत्त्वार्थ भाष्ये' कहकर उसका उल्लेख करता है। इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन विषयवस्तु का कोई ग्रन्थ उपस्थित नहीं था।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्राचीन अन्तकृदशा की विषयवस्तु ईसा की चौथी-पांचवीं शताब्दी के पूर्व ही परिवर्तित हो चुकी थी और छठी शताब्दी के अन्त तक वर्तमान अन्तकृदशा अस्तित्व में आ चुकी थी।
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