SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिव प्रसाद [रचनाकाल वि० सं० तेरहवीं शती का अंतिम चरण ] से ज्ञात होता है कि वर्धमानसूरि पहले एक चैत्यवासी आचार्य के शिष्य थे, परन्तु बाद में उनके मन में चैत्यवास के प्रति विरोध की भावना जागृत हुई और उन्होंने अपने गुरु से आज्ञा लेकर सुविहितमार्गीय आचार्य उद्योतनसूरि से उपसम्पदा ग्रहण की।" १०८ गणधर सार्धशतक की गाथा ६१-६३ में देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि और उद्योतनसूरि के बाद वर्धमानसूर का उल्लेख है । पूर्वप्रदर्शित तालिका नं० १ में देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि ( प्रथम ), उद्योतनसूरि (द्वितीय) के बाद आम्रदेवसूरि का उल्लेख है । इस प्रकार उद्योतनसूरि के दो शिष्यों का अलग-अलग साक्ष्यों से उल्लेख प्राप्त होता है । इस आधार पर उद्योतनसूरि (प्रथम) और वर्धमानसूरि को परस्पर गुरुभ्राता माना जा सकता है । अब वर्धमानसूरि की शिष्य परम्परा पर भी प्रसंगवश कुछ प्रकाश डाला जायेगा । वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि का उल्लेख प्राप्त होता है । २ जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्यनरेश दुर्लभराज की सभा में शास्त्रार्थ में चैत्यवासियों को परास्त कर विधिमार्ग का समर्थन किया था । जिनेश्वरसूरि के ख्यातिनाम शिष्यों में नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेवसूरि, जिनभद्र अपरनाम धनेश्वरसूरि और जिनचन्द्रसूरि के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इनमें से अभयदेवसूरि की शिष्य परम्परा आगे चली । अभयदेवसूरि के शिष्यों में प्रसन्न चन्द्रसूरि, जिनवल्लभसूरि और वर्धमानसूरि के उल्लेख मिलते है । प्रसन्नचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि हुए, जिन्होंने जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरि को आचार्यपद प्रदान किया । " जिनवल्लभसूरि वास्तव में एक चैत्यवासी आचार्य के शिष्य थे, परन्तु इन्होंने अभयदेवसूरि के पास विद्याध्ययन किया था और बाद में अपने चैत्यवासी गुरु को आज्ञा लेकर अभयदेवसूरि से उपसम्पदा ग्रहण की। जिनवल्लभसूरि से ही खरतरगच्छ का प्रारम्भ हुआ । युगप्रधानाचार्यगुर्वा - वली में यद्यपि वर्धमानसूरि को खरतरगच्छ का आदि आचार्य कहा गया है, परन्तु वह समीचीन प्रतीत नहीं होता । वस्तुतः अभयदेवसूरि के मृत्योपरान्त उनके अन्यान्य शिष्यों के साथ जिनवल्लभसूरि की प्रतिस्पर्धा रही, अत: इन्होंने विधिपक्ष की स्थापना की, जो आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । अभयदेवसूरि के तीसरे शिष्य और पट्टधर वर्धमानसूरि हुए । इन्होंने मनोरमा कहा [ रचनाकाल वि० सं० १९४० / ई० सन् १०८३] और आदिनाथचरित [ रचनाकाल वि० सं० १९६० / ई० सन् १. मुनि जिनविजय - पूर्वोक्त पृ० २६ । २. वही, पृ० ८ । ३. देसाई, पूर्वोक्त पृ० २०८ | ४. देसाई - पूर्वोक्त पृ० २१७-१९ । ५. मुनि जिनविजय — पूर्वोक्त पृ० १५ । ६. वही, पृ० १६ । ७. वही, पृ० ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy