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________________ ६४ डा० सुदर्शन लाल जैन व्याख्याप्रज्ञप्ति की दिगम्बर उल्लेखों से भिन्नता है । इसमें गौतम का प्रश्नकर्ता होना और सुधर्मा का नाम न होना चिन्त्य है । गौतम का प्रश्नकर्ता होना दिगम्बरों के अनुकूल है । इस ग्रन्थ का कुछ अंश निश्चय ही प्राचीन दृष्टिगोचर होता है, परन्तु रायपसेणीय आदि अङ्गबाह्य ग्रन्थों के उल्लेखों, समवायाङ्ग आदि में निर्दिष्ट विषयवस्तु से भिन्नता होने, मंगलाचरण होने आदि कारणों से इसके कुछ अंशों को बाद में जोड़ा गया है। इस ग्रन्थ का भगवती नाम श्वेताम्बरों में प्रसिद्ध है। समवायाङ्ग और विधिमार्गप्रपा में इस नाम का प्रयोग भी मिलता है। इस ग्रन्थ के प्राकृत नाम कई हैं। गोम्मटसार जीवकाण्ड में इसे "विक्खापण्णत्ती" का है जो व्याख्याप्रज्ञप्ति के अधिक निकट प्रतीत होता है, परन्तु यह नाम धवला आदि में न होने से ज्ञात होता है कि यह नाम बाद में संस्कृत के स्वर-व्यञ्जन-परिवर्तन के आधार पर दिया गया है। ६-ज्ञाताधर्मकथा (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में १. समवायाङ्ग में-ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञातों के (१) नगर, (२) उद्यान, (३) चैत्य, (४) वनखण्ड, (५) राजा, (६) माता-पिता, (७) समवसरण, (८) धर्माचार्य, (९) धर्मकथा, (१०) इहलौकिकपारलौकिक ऋद्धिविशेष, (११) भोगपरित्याग, (१२) प्रव्रज्या, (१३) श्रुतपरिग्रह, (१४) तपोपधान, (१५) पर्याय ( दीक्षा पर्याय ), (१६) सल्लेखना, (१७) भक्तप्रत्याख्यान, (१८) पादपोपगमन, (१९) देवलोक गमन, (२०) सुकुलप्रत्यागमन, (२१) पुनः बोधिलाभ ( सम्यक्त्वप्राप्ति ) और (२२) अन्तक्रियाओं का वर्णन है। इसमें (१) श्रेष्ठ जिन-भगवान् के शासन की संयमरूपी प्रवजितों की विनयप्रधान प्रतिज्ञा के पालन करने में जो धृति, मति, और व्यवसाय (पुरुषार्थ) से दुर्बल, (२) तप-नियम, तपोपधानरूप युद्ध-दुर्धर भार को वहन करने में असमर्थ होने से पराङ्गमुख, (३) घोर परोषहों से पराजित होकर सिद्धालय प्राप्ति के कारणभूत महामूल्य ज्ञानादि से पतित, (४) विषय सुखों को तुच्छ आशा के वशीभूत होकर रागादि दोषों से मच्छित, (५) चारित्र, ज्ञान और दर्शन की विराधना से सर्वथा निःसार और शून्य, (६) संसार के अपार दुःखरूप दुर्गतियों के भवप्रपञ्च में पतित ऐसे पतित पुरुषों को कथाएँ हैं। जो धीर हैं, परीषहों और कषायों को जीतने वाले है, धर्म के धनी हैं, संयम में उत्साहयुक्त हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और समाधियोग की आराधना करने वाले हैं, शल्यरहित होकर शुद्ध सिद्धालय के मार्ग की ओर अभिमुख हैं ऐसे महापुरुषों की कथायें हैं। जो देवलोक में उत्पन्न होकर देवों के अनुपम सुखों को भोगकर कालक्रम से वहां से च्युत होकर पुनः मोक्षमार्ग को प्राप्तकर अन्तक्रिया से विचलित (अन्तसमय में विचलित) हो गए हैं उनकी पुनः मोक्षमार्ग-स्थिति की कथायें हैं। १. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३५६. २. समवा० सूत्र ५३०-५३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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