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व्यावहारिक जीवन में नाम रूप, स्थापना और प्रतीक
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ज्ञापक के रहने पर भी ज्ञाप्य का ज्ञान नहीं होता है । भारतीय शब्द ईरान और चीन में तब तक कोई अर्थ नहीं प्रकाशित कर सकते, जब तक उनका अर्थों से आरोपित और सांकेतिक सम्बन्ध न बताया जाये । एक ही भाषा क्षेत्र में दस-पंद्रह कोस की दूरी पर बहुत से शब्दों के अर्थ नहीं समझे जाते हैं । नाम और नामी के सम्बन्ध की अव्याप्ति उस समय और स्पष्ट हो जाती है, जब हम किसी शब्द ( नाम ) का प्रयोग ऐसे द्रव्य ( नाम ) के लिये करते हैं, जिसके लिए उसे मान्यता नहीं मिली है । घर में जब किसी नौकर से कोई बड़ी भूल हो जाती है तब न तो उसके चार पैर निकल आते हैं और न पीछे पुंछ ही उग जाती है, फिर भी बाहर 'सत्यं वद धर्मं चर' का ढोल पीटने वाला महो पदेशक भी उसे गदहा कहने में नहीं चूकता है । गाँव का अध्यापक छोटे बच्चों को 'क माने कौआ और अमाने आम' पढ़ाता है । जरा उससे पूछिये कि ये अर्थ उसने किस शब्दकोश में देखें हैं । रेखागणित में रेखाओं, कोणों और त्रिभुजों के नामों में कितनी सत्यता है, इसे यदि जानना चाहें तो घर की दीवारों के कोनों और किसी भी त्रिभुजाकार वस्तु को देख लें । अबोध बालक पूर्वसिद्ध द्रव्यों को प्रत्यक्ष देखता है । उस समय उसे शब्दों और द्रव्यों के सांकेतिक सम्बन्ध अज्ञात रहते हैं । धीरे-धीरे वह परिवार और समाज के साहचर्य में रह कर तत् तत् द्रव्यों का तत् तत् शब्दों ( ध्वनियों) से कृत्रिम सम्बन्ध समझता है और वैसे ही शब्दों का उच्चारण करना सीखता है, तब कहीं जाकर वाक्शक्ति स्फुरित होती है । यदि वही बालक समाज से पृथक् कर दिया जाये तो गूंगा हो जायेगा । यदि शब्द और अर्थ में यथार्थ सम्बन्ध होता तो जैसे अनुपहतेन्द्रिय मनुष्य के लिए दर्शन की क्रिया स्वाभाविक होती है, वैसे ही भाषण भी स्वाभाविक होता है । बाल्यकाल के प्रयत्नों की स्मृतियाँ स्थिर नहीं रह पाती हैं, अतः मातृभाषा स्वाभाविक सी लगती है, परन्तु जब कोई विदेशी भाषा सोखनी पड़ती है तब पता चलता है कि यह कार्य कितना आयास- साध्य है । विभिन्न भाषाओं में एक ही नामी के भिन्न-भिन्न नाम हैं । यदि नाम को आकृति निश्चित होती और उसका नामी से ध्रुव सम्बन्ध होता तो सभी देशों और कालों में प्रत्येक द्रव्य का एक ही नाम रहता । परन्तु एक ही द्रव्य के अनेक देशों और कालों में अनेक नाम पाये जाते हैं अतः सभी कल्पित हैं और सभी मिथ्या हैं । उपनिषदों ने ईश्वर को अशब्द कहा था, परन्तु उस अव्यपदेश्य एवं परात्पर शक्ति के भी असंख्य नाम गढ़ लिये गये हैं । कोई अल्लाह कहता है, कोई गॉड और कोई ईश्वर । ये झूठे नाम ही संसार के नाना धार्मिक सम्प्रदायों में प्रचलित उपासना के मूलाधार हैं। यदि हम यथार्थ के नशे में आकर सभी अयथार्थ मान्यताओं को बिलकुल ठुकरा दें तो भजन, कीर्तन, जप, स्तुतियाँ और आराधनायें सभी बन्द हो जायेंगी ।
परमार्थं निर्विकल्पक भी हो सकता है, परन्तु व्यवहार सर्वथा सविकल्पक है । हम उसके लिये कल्पित नाम ही नहीं गढ़ते हैं, कल्पित रूप भी रचते रहते हैं । यथार्थ दृष्टि से द्रव्य सत् है । सत्ता ही उसका लक्षण है, परन्तु व्यवहार में एक ही द्रव्य में अनेक कल्पित नाम और रूप प्रकट हो जाते हैं । मृत्तिका से घट, शराव ( सकोरा ), कुण्ड, चषक, हाथी, घोड़े तथा अन्य खिलौनों की आकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। सुवर्ण कुण्डल, कटक, केयूर, किंकिणी, किरीट, दीनार और निष्क के रूपों में परिणति प्राप्त करता है । तन्तुओं के संयोग से पट की आकृति का प्रादुर्भाव होता है । ये सभी आकृतियाँ और नाम मानव-निर्मित हैं, द्रव्य में प्रारम्भ से नहीं रहते हैं। इस प्रकार मनुष्य प्रकृति से उपादान के रूप में प्राप्त द्रव्यों को आवश्यकतानुसार विविध रूपों में परिष्कृत और परित करता रहता है, किन्तु उन रूपों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, क्योंकि ध्वंस के पश्चात् सभी
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