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अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल
चउविधि संखाणे पण्णत्ते तं जहा । परिकम्म ववहारे रज्जु रासी ॥ ' - ७
इस गाथा पर अद्यावधि किसी ने ध्यान नहीं दिया है। एक ही ग्रन्थ में दो प्रकार के उल्लेख क्यों हैं ? संख्यान के चार प्रकार पिछले पृष्ठ पर उद्धृत दत्त के निष्कर्ष के प्रतिकूल हैं । क्या यहाँ संख्यान से कोई भिन्न अर्थ ध्वनित होता है ? अथवा क्या यहाँ पर इंगित संख्यान के प्रकार कोई विशेष गुण रखते हैं ? इस विषय पर अभी और व्यापक विचार विमर्श अपेक्षित है ।
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1. Agrawal, N.B. Lal
2. Bose, DM & Sen, SN
3. Dutt, B. B
4. Dutt, B. B. & Singh A. N. 5. Jain, G. R.
6. Jain, L. C.
7. Jain, L. C.
8. Jain, L. C.
9. Jain, L. C.
10. Kapadia, H. R.
11. Upadhyaya, BL 12. Shah, AL
13. Srinivas, CP. Iengar
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१. ठाणं ४, सूत्र, ५०५, पृ० ४३८ ।
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