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जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय
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इस प्रकार आपने यावत् तावत् को सरल समीकरण से सम्बद्ध किया । जो उचित ही है ।
क्योंकि—
में से x कामन लेकर संख्याओं के योग का सूत्र है ।
अंश एवं हर में से काट देने पर यह बनता है जो कि प्राकृतिक S = (n) (n+i) यह विषय तो परिकर्म के अन्तर्गत आ ही जाता
2
है | अतः दत्त की व्याख्या विचार अधिक तर्कसंगत है ।
S
n(x+x)
2x
७-८-९ वग्गो, घणो, वगगवग्गो (वर्ग, घन एवं चतुर्थ घात ):
अभिधान राजेन्द्र में इन तीनों शब्दों की व्याख्या आगमिक उद्धरणों सहित दी गई है जहाँ इनके अर्थ क्रमशः वर्ग करना, घन करना एवं वर्ग का वर्ग करना है । अग्रवाल ने भी अपने शोधप्रबंध में वर्ग के उल्लेखों को संकलित किया है ।" उन सबसे स्वाभाविक रूप में यह प्रतीत होता है कि ये शब्द निश्चित रूप से वर्तमान में प्रचलित अर्थों ( ज्यामितीय अर्थ नहीं ) में ही प्रयुक्त हुये हैं । किन्तु यहाँ भी हम अपने पूर्व तर्क को उद्धृत करते हैं जब वर्ग एवं घन करना ये दोनों क्रियायें मूल परिकर्मों में आ जाती हैं तब उन्हें नवीन विषय के रूप में प्रतिष्ठित करने का क्या औचित्य ? पुनः अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि प्राचीन ग्रन्थों में जब घातांकों के सिद्धान्त उपलब्ध हैं एवं उनमें १२वीं घात तक के प्रयोग निर्दिष्ट हैं - तब चतुर्थ घात को ही क्यों विशेष महत्त्व दिया गया ? धवला में निहित वर्गित संवर्गित की प्रक्रिया में २५६ तक की घात आ जाती है । * चतुर्थ घात निकालने की क्रिया वर्ग करने की क्रिया की पुनरावृत्ति के समतुल्य है । जैनाचार्य वर्ग एवं घन करने की अपेक्षा अधिक जटिल क्रियाओं वर्गमूल एवं घनमूल निकालने में विशेष सिद्धहस्त थे । यदि वर्ग एवं धन को स्वतंत्र विषय की मान्यता दी गई तो उन्हें भी दी जानी चाहिये । लेकिन ऐसा नहीं किया गया । आखिर क्यों ?
संभवतः उपर्युक्त प्रश्नों एवं अन्य कारणों को ही दृष्टिगत करते हुए दत्त ने भी लिखा कि
'I have no doubt in my mind that 'Varga' refers to quadratic equation 'Ghan' refers to cubic equation and 'Vargavarga' to biquadratic equation'.
१. अनुयोगद्वार सूत्र - १४२ ।
२. धवला, पुस्तक - ३ |
३. देखें सं० - ३, पृ० १७२ ।
४. देखें सं० १३, पृ० २८ ।
यद्यपि आज के उपलब्ध आगमों में हमें घन समीकरण एवं चतुर्थघात समीकरण के स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलते किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध ग्रन्थों में उनका पाया जाना अस्वाभाविक नहीं है । आगमिक ज्ञान के आधार पर रचित गणितसार संग्रह में तो ऐसे उल्लेख प्रचुर हैं अतः दत्त का कथन असत्य नहीं कहा जा सकता है। आयंगर एवं जैन ने भी उनका समर्थन किया है ।
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