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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ नवम खण्ड
' णमो आयरियाणं' - यह तीसरा पद है। इसका रंग है पीला। इसका स्थान है-विशुद्धि चक्र, गला । यह पवित्रता का स्थान है, चक्र है। हमारी सारी भावनाओं, आवेगों पर नियन्त्रण रखने वाला यही स्थान है। श्वास की स्थिति होगी अन्तर कुंभक ।
' णमो उवज्झायाणं'- -यह चौथा पद है । इसका रंग है नीला। इसका स्थान है-हृदय-कमल । श्वास की स्थिति है - अन्तर् कुंभक ।
'णमो लोए सव्वसाहूणं - यह पाँचवाँ पद है। इसका रंग है-कृष्ण, काला। इसका स्थान है— पैरों का अंगूठा । श्वास की स्थिति है—अन्तर् कुंभक ।
- पद,
पाँचों पदों के वर्ण भिन्न हैं, स्थान भिन्न हैं। श्वास की स्थिति पाँचों में समान है। तो प्रत्येक के साथवर्ण, स्थान और श्वास की स्थिति -- चारों बातें जुड़ी हुई हैं । अब इनके साथ हमारे मन का पूरा योग रहना चाहिए। मन का योग होने से पाँच बातें हो गयीं। पाँचों का विधिवत् योग होने से ही जप शक्तिशाली होता है । एक की भी कमी, परिणाम में न्यूनता ला देती है ।
आप अहं का विसर्जन करना चाहते हैं, करुणा का विकास करना चाहते हैं और श्वास पर नियन्त्रण चाहते हैं, ये तीनों इस जप से सधते हैं । मन्त्र शक्तिशाली बन जाता है। आज आप समझते हैं कि नवकार मन्त्र का इतना जाप किया, कितनी मालाएँ फेरी, वर्षों तक क्रम चलता रहा, पर लाभ, दृश्यलाभ कुछ भी नहीं हुआ । यह अनुभूति एक ही नहीं, अनेक व्यक्तियों की हो सकती है। आप ऊपर बताये हुए क्रम से जप करें और छह मास बाद बतायें कि परिवर्तन हुआ या नहीं ? परिवर्तन अवश्य होगा। मैंने इस प्रयोग की चर्चा की। जो लोग बहुत सारे प्रयोगों में जाना नहीं चाहते, जिनमें अनेक प्रयोग करने की क्षमता भी नहीं है, वे इस प्रयोग को पकड़ें। इसे हृदयंगम कर लें। इससे चार बातें फलित होंगी ।
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पहली बात है - अहं का विसर्जन इसका अर्थ है --विनम्रता । यह भी एक समाधि है । भगवान् महावीर ने चार समाधियां बतायी है— विनयसमाथि श्रुतसमाधि तपसमाधि और आचारसमाथि पहली है-विनय समाधि | यह है अहं का विसर्जन । अहं स्वयं की उद्दण्डता है, अपनी चण्डता है, प्रकृति का उद्घतपन है। आदमी अपने आपको बहुत मानने लग जाता है । यह है अहं विनय का अर्थ क्या है ? 'विनयनं' – दूर करना, हटाना। विनय का मतलब है -- दूर कर देना, हटा देना, अपसारित कर देना । जो हमारे भीतर कषाय का भाव है, अहं है, उसे दूर करना, यह तो अपना स्वयं का गुण है । अहंकार स्वयं का ही आत्म-समाधि में रहना है। यह समाधि अहंकार के एकाग्रता सिद्ध होती है ।
यही है विनय, विनम्रता विनम्रता दूसरे के प्रति नहीं होती। दोष है । विनय का अभ्यास करना, विनयसमाधि में रहना, विसर्जन से फलित होती है। इससे स्वयं को समाधान मिलता है, दूसरी बात है – करुणा का अभ्यास । तीसरी बात है-प्राण की साधना ।
चौथी बात है-मन्त्र का विधिवत् जप
ये चारों बातें मिलती हैं तब पूरा प्रयोग बनता है। इस प्रकार के प्रयोग से सिद्धि प्राप्त होती है। इससे हमारा चतुर्मुखी विकास होता है। किसी एक अंश का विकास नहीं होता, सब अंशों का विकास होता है। केवल प्राणकोश का विकास हो जाये और स्वभाव न बदले तो वह शक्ति हमारे लिए बहुत खतरनाक बन जाती है । हमारे लिए दुःखदायी बन जाती है । हम आत्मा का विकास करना चाहते हैं, किन्तु यदि प्राण का विकास नहीं होगा तो दुर्बल प्राण आत्मा तक नहीं पहुँच पायेंगे। उपनिषदों में एक सुन्दर बात कही है—'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ' - बलहीन या वीर्यहीन व्यक्ति आत्मा को नहीं पा सकता । आत्मा तक नहीं पहुँच सकता । कमजोर कुछ नहीं कर सकता, कुछ नहीं
पा सकता ।
करुणा का अभ्यास और अहं का विसर्जन — ये दो बातें आपके संकल्प पर निर्भर रहेंगी, संकल्प के सहारे चलेंगी । करुणा का व्यवहार में प्रयोग होगा, किन्तु अभी यह भूमि प्रयोग करने की नहीं है। अभी आप किस पर क्रूरता करते हैं ? किस पर करुणा करते हैं ? यह स्वयं आप पर निर्भर हैं । आपको स्वयं ही सोच-समझकर प्रयोग करना है । दीर्घश्वास, समताल श्वास और नमस्कार मन्त्र का जप- - इनका प्रयोग कराया जा सकता है, सीखा जा सकता है । दो आदमी नदी के तट पर पहुँचे। उन्हें नदी पार करनी थी। उन्होंने देखा, नौका पड़ी है। पहला बोला'नाविक तो नहीं है, पर नौका पड़ी है। नदी पार कर लेंगे ।' दूसरा बोला- 'ऐसा नहीं हो सकता । नदी को पार करने के लिए केवल नौका ही पर्याप्त नहीं है । नाविक भी चाहिए, डांड भी चाहिए, नौका को खेने की कला भी चाहिए। ये सब हों, तब नदी को पार किया जा सकता है।' पहला बोला- 'यह कैसे हो सकता है ? जीवन भर सुनते आये हैं।
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