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१४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
उपस्थित होते हैं | पतंजलि ने धारणा, ध्यान और समाधि तीनों को एक सूत्र में संयम के नाम से सम्बोधित किया है । संयम शब्द से पतंजलि का अभिप्राय धारणा, ध्यान और समाधि ये तीनों अभिप्रेत है । भाष्यकारों ने संयम की परिभाषा नहीं की है; परन्तु इतना ही कहकर वे शान्त रह गये हैं कि संयम तान्त्रिकी विषय है। एक बात तो स्पष्ट होती है कि शास्त्रकार और भाष्यकार दोनों ही इस विषय को प्रतिपादित करते समय कुछ अड़चन अनुभव कर रहे हैं । अतएव निर्देश मात्र से ही उन्होंने सन्तोष मान लिया है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि अनुभव के विषय का वर्णन करते समय भाषा या शैली के भेद के कारण कुछ भ्रम होने की सम्भावना से सशंक होकर ही ध्यान सम्बन्धी वर्णन शास्त्रों में नहीं मिलता है ।
संक्षेप में ध्यान को समझने के लिए शास्त्रीय दृष्टि से कम से कम धारणा को भी समझना बहुत आवश्यक होगा । अष्टांग योग की प्रक्रिया में धारणा का क्रम छठा है । साधारण बोलचाल की भाषा में भी हम कभी-कभी धारणाध्यान या ध्यान-धारणा की बात करते हैं। जिस प्रकार संयम में हम तीन अंगों का वर्णन करते हैं, साधारण भाषा में लोग दो अंगों की भाषा बोलते हैं । समाधि के बारे में बोलते समय लोग कुछ डर और संकोच का अनुभव करते हैं । ध्यान शब्द वैदिक साहित्य के अतिरिक्त अन्यत्र भी प्रयुक्त है। आधुनिक युग में जापान में जेन (zen ) प्रवाह का आधार भी लोग ध्यान से जोड़ने का प्रयास करते हैं । आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के अनुसार ध्यान एक प्रदीर्घ प्रक्रिया है और उन्होंने बहुत ही स्पष्ट रूप के साथ इस प्रक्रिया का विश्लेषण सातवें और आठवें "प्रकाशों" में किया है। इसका बहुत सारा सम्बन्ध मन्त्रशास्त्र के साथ और हठयोग के अनुसार चक्रों की कल्पना के साथ मिलता-जुलता है । जैसा कि ऊपर निर्देश किया गया है, कालांतर में कुण्डलिनी योग भी स्वयं में यद्यपि एक शास्त्र बना तथापि उसका आधार धारणा और ध्यान ही रहा। योग मार्ग की ओर आकृष्ट होने वाले व्यक्ति की ध्यान की ओर प्रवृत्ति होना एक स्वाभा'विक क्रम माना जायेगा। और इस क्रम का अभिप्राय यह भी होगा कि धारणा, ध्यान आदि के पूर्व अंगों पर साधक का अपनी आवश्यकता और योग्यतानुसार अधिकार अभिप्रेत है। पतंजलि ध्यान की व्याख्या करते समय एक ही प्रत्यय को सदा बने रहने की बात कहते हैं। 'एकतानता' शब्द का व्यक्ति के जीवन के साथ-साथ उसकी वैचारिक परिपक्वता पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा है। 'प्रत्यय' शब्द के आधार पर एक विस्तृत शास्त्र निर्मित हुआ और ध्यान के नाम से भिन्न-भिन्न प्रवाह चल पड़े । यदि ध्यान सम्बन्धी प्रवाह या सम्प्रदाय मान्य न हो तो भी ध्यान के बहुत से आलम्बन प्रचलित हो गये । मन्त्र- पूजा, मूर्ति-पूजा और चक्रों की उपासना इस एक 'प्रत्यय' शब्द के द्वारा विकसित हुई है (विकृत हुई है) । आचार्य हेमचन्द्र ने बड़े विस्तृत रूप से इसका वर्णन किया है। हठयोग में भी इसका बड़ा विस्तृत रूप उपलब्ध है । योग के ग्रन्थों में स्थूलध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्मध्यान का विवेचन है । १ योग तैत्तरीयोपनिषद् में बारह धारणा मिलकर एक ध्यान बनता है। उसी प्रकार ध्यान के नौ स्थान भी मान्य किये गये हैं। आधुनिक युग में जो प्राचीन 'विपश्यना साधना' फिर से प्रयोग में आ रही है उसका भी सम्बन्ध अपने श्वास का ध्यान केन्द्रित करना है और इस ध्यान साधना का सम्बन्ध कुछ लोगों ने रोग निवारण के साथ भी जोड़ दिया है। सूफी लोगों ने भी दरवेश नृत्य के नाम से ध्यान के प्रयोग प्रचलित किये हैं । इस समय पूरे विश्व में चर्चा, टीका और उत्सुकता का विषय 'ट्रान्सेन्डेण्टल मेडिटेशन" है। दिन में दो बार किसी एक निश्चित समय किसी एक निश्चित मन्त्र पर ध्यान करने के लिए लोगों को प्रेरणा दी गयी है। इस सम्बन्ध में विस्तृत रूप से जो प्रतिक्रियाएँ लोगों ने व्यक्त की हैं उससे एक बात तो बिलकुल स्पष्ट हो गयी है कि इस प्रक्रिया का शरीर पर कुछ प्रभाव हो रहा है और इस प्रभाव को जानने के लिए संगठनात्मक रूप में प्रयोगशालाओं में परिणामों की जांच की जा रही है और लोगों का विश्वास है कि ये परिणाम आशादायक और उत्साहवर्धक हैं। भारत में कुछ अन्य लोग भी अपने-अपने रूप में ध्यान का प्रसार कर रहे हैं और इस प्रचार का सबसे बड़ा प्रमाण लोगों का ध्यान की ओर आकृष्ट होना है ।
कुछ छोटे-छोटे प्रश्न ध्यान के सम्बन्ध में अनेक बार प्रस्तुत किये जाते हैं और विशिष्ट रूप से उत्तर न मिलने के कारण स्वाभाविक रूप से भ्रम पैदा होते हैं। उदाहरणार्थ, ध्यान करने का पात्र कौन है ? कब ध्यान करना चाहिए ? स्थान कैसा हो ? समय कितना लगाना चाहिए ? ध्यान किस पर करना चाहिए ( मन्त्र, चक्र, इष्टदेवता, श्वास-प्रश्वास, शून्य, सहज इत्यादि ) ? ध्यान सीखा जा सकता है क्या ? गुरु की आवश्यकता है क्या ? गलत ध्यान से अनिष्ट होने की सम्भावना है क्या ? ध्यान का किसी विशेष धर्म के साथ सम्बन्ध है क्या ? इत्यादि अनेक छोटे-छोटे प्रश्न साधकों के मन में प्रायः उपस्थित रहते हैं और अनुत्तरित भी रहते हैं ।
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