________________
च
Jain Education International
१२
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
हुई जेन के जीवन से सम्बन्धित एक कथा का सारांश, दो छोटी गाथाओं में इस प्रकार है-
"शरीर बोधि वृक्ष के समान है,
और मन स्वच्छ दर्पण के समान;
हर क्षण हम उन्हें सावधानी से साफ करते रहते हैं,
ताकि उन पर धूल न जम जाय ।"
इस गाथा का उत्तर इस प्रकार दिया गया है
"नहीं है बोधिवृक्ष के समान शरीर,
और न कहीं चमक रहा है स्वच्छ दर्पण, तत्त्वतः सब कुछ शून्य है,
धूल जमेगी कहाँ ?"
इन दोनों गाथाओं में एक तात्त्विक भेद को व्यावहारिक दृष्टि से दिखाने का प्रयत्न किया गया है। सामाजिक जीवन में हम बहुत ही योजनापूर्वक प्रयत्नशील जीवन की आकांक्षा करते हैं। परन्तु सामाजिक घटनाएँ (यदि देवी परिस्थितियों का विचार थोड़ी देर के लिए अपने पक्ष के सम्बन्ध में ही समझ लिया जाय तो भी) कभी-कभी हमारे सिद्धान्तों और परिस्थितियों के विपरीत होती हैं और हम उनसे विचलित हो जाते हैं, ऐसी दुर्घटनाओं से बचने के लिए हम विभिन्न प्रकार के कवच तैयार करते हैं, संगठन बना लेते हैं और अन्य सुरक्षा के साधन भी खोजते रहते हैं । साधारणतः अनुभव अपने मन के विरुद्ध ही होता है । संसार एक ऐसी गति से जा रहा है जिसके नियन्त्रण के बारे में विचार करते समय बुद्धि को अपनी मर्यादाएँ माननी पड़ती हैं, तर्क काम नहीं करते और हम सिद्धान्तों और शब्दों का आश्रय ढूंढते हैं। ध्यान सम्प्रदाय की मान्यता है कि यदि हम अपने अस्तित्व को समाज पर अथवा प्रकृति के निश्चित क्रम पर छोड़ दें तो हमारी तथाकथित व्याधियाँ, मानसिक क्लेश और इसी प्रकार के अन्य दुःख, अपने आप विलीन हो जाते हैं । दूसरे शब्दों में ये सिद्धान्त जीवन की एक नयी दृष्टि दिखाने का प्रयास करते हैं; जिसमें सहज जीवन जीने की ओर संकेत है ।
एक अन्य उदाहरण में हुईजेन ने कहा है
"जो ईमानदारी से सच्चाई के मार्ग पर चलता है, वह दुनिया की गलतियों को नहीं देखता ।
यदि हम दूसरों के दोष देखते हैं,
तो हम स्वयं भी गलत हैं।
यदि दूसरे पुरुष गलती पर हैं तो उस पर हमें ध्यान नहीं देना चाहिए,
क्योंकि दूसरों के दोष देखना हमारे लिए गलत है।
दोष ढूंढने की आदत से पीछा छुड़ा कर
हम अपवित्रता के एक स्रोत को बन्द कर देते हैं,
जब न घृणा और न प्रेम हमारे मन को विक्षुब्ध कर सकते हैं,
तो हम गहरी शान्ति में सोते हैं।'
हुजेन ने इन गाथाओं द्वारा हमें यह बताया है कि समाज में हमें अपना प्रतिबिम्ब दिखता है । यदि हम अच्छे हैं तो लोग हमारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। दूसरे शब्दों में हम लोगों को उनके दोष दिखाकर अथवा उनकी निन्दा करके सुधार नहीं सकते । वास्तविकता तो यह है कि गुण और दोष का निर्णय करना भी बहुत कठिन है। ये दोनों शब्द सापेक्ष अर्थ रखते हैं और इसलिए यदि हम प्राप्त परिस्थिति को जिस स्वरूप में मिलती है, वैसा ही स्वीकार कर लें तो ध्यान सम्प्रदाय के अनुसार मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि से शरीर पर होने वाले सूक्ष्म प्रभावों से हम बच सकते हैं । यहाँ पर यही अभिप्राय है कि जीवन के आदर्श निन्दा, आलोचना से परे हटकर वास्तविकता को स्वीकार कर लेने में है ।
ध्यान - साहित्य में बहुत सारी ऐसी छोटी-छोटी घटनाओं का वर्णन है जो दैनिक जीवन में होने वाली गतिविधियों से सम्बन्धित हैं। किसी साधक को खेत में काम करते समय एक विशेष प्रकार की घटना से कुछ बोध होता है। किसी को कुछ विशेष प्रकार की आवाज से ज्ञान प्राप्त हो जाता है। किसी समय गुरु थप्पड़ मार देता है और ज्ञान प्राप्त हो जाता है। तर्क-बुद्धि से परे ऐसी बहुत सारी घटनाओं से ध्यान-साहित्य का भण्डार भरा पड़ा है। जिन घटनाओं का प्राचीन समय में लोगों ने उपयोग किया उसका प्रभाव आज क्यों नहीं हो पा रहा है ? तत्कालीन सामाजिक
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org