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योग : स्वरूप और साधना
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शयोक्ति न होगी कि सम्भवतः सभी प्रकार की धार्मिक विधाओं में ज्ञान, भक्ति और कर्म का प्रभाव किसी न किसी रूप में मिलता है।
कुंडलिनीयोग, योग का सबसे अधिक प्रिय और आकर्षित करने वाला व विवादास्पद आयाम है । योगशास्त्र में कुंडलिनी शक्ति के अनेक नाम दिये गये हैं और इस पर विस्तृत साहित्य भी उपलब्ध है ।२० योग सम्बन्धी ग्रन्थों में कुंडलिनी के चक्र और पद्मदलों के बारे में भी शिवसंहिता–अध्याय ५; ध्यानबिन्दु उपनिषद्, शांडिल्य उपनिषद्; योग कुण्डलिनी उपनिषद्; सिद्ध सिद्धान्त पद्धति आदि विभिन्न ग्रन्थों में अलग-अलग वर्णन है।
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ध्यान-सम्प्रदाय, योग और जैन साधना
बीसवीं शताब्दी में विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ मानव के अस्तित्व को टिकाने के लिए कुछ प्राचीन दार्शनिक परम्परायें और उन्हीं परम्पराओं से कुछ अंशों को सामने रखते हुए कुछ नये मत, मनन-चिन्तन तथा चर्चा के विषय हो रहे हैं। प्राचीन भारतीय परम्परा में मानव के सर्वांगीण विकास की ओर सदैव प्रयास किया जाता रहा है। भारत की दार्शनिक परम्परा और धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन की घनिष्ठता तथा एकरूपता को, पाश्चात्य दार्शनिक प्रणाली में निश्चय ही कोई विशिष्ट स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि भारतीय परम्परा में व्यावहारिक जीवन और जीवन में नित्य प्रति आने वाली समस्याओं के सम्बन्ध में गहनता के साथ विचार और विवेचन किया गया है । शरीर के भौतिक आयामों से परे हटकर, एक दूसरा भी ऐसा आयाम है जिसकी चर्चा सम्भवतः तार्किक भाषा में न उतारी जा सके । भारतीय परम्परा में वैदिक दर्शन के साथ-साथ जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शन का भी विकास हुआ ।* तीनों दर्शनों का जीवन के व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ गहरा सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध, जीवन में-शरीर तथा शरीर से होने वाले शुभाशुभ कर्मों अथवा शरीर में उत्पन्न होने वाली इच्छाओं और उनसे होने वाले परिणामों (शरीर पर, बुद्धि पर और यदि मन की परिभाषा निश्चित हो तो उस पर भी) आदि से सम्बन्धित है । बीसवीं शताब्दी में कुछ अस्तित्ववादियों ने कुछ इसी प्रकार का चिंतन करने का प्रयत्न किया है और मनोविश्लेषण के क्षेत्र में काम करने वाले कुछ विद्वानों ने भी इसी तरह का विवेचन करने का प्रयास किया है। सभी जगह हमें एक ही प्रयत्न इस सन्दर्भ में दिखाई देता है कि मानव को संसार में भौतिक सुख के साथ-साथ कुछ और भी चाहिए; जो उसकी प्राप्ति हेतु मार्ग दिखा सके, प्रेरणा दे सके । यद्यपि यह एक बहुत बड़ी आकांक्षा है और निश्चित परिणाम तक पहुँचने की सम्भावना न दिख रही हो तो भी विश्वास ऐसा दिख रहा है कि इस प्रयत्न के द्वारा मानव को कुछ उपलब्धि अवश्य होगी।
प्रस्तुत विवेचन में भारतीय दर्शन प्रणाली में से हमारे विवेचन का विषय योग का वह भाग होगा जहाँ शरीर के साथ कुछ प्रयोग करने की सुविधा है और उस प्रयोग के साथ अनुभव प्राप्त करने का आह्वान भी है । इसी प्रकार जैन-दर्शन में योग सम्बन्धी किये गये कार्यों में विशेष रूप से आचार्य हेमचन्द्र का योगशास्त्र और उसी से सम्बन्धित विवेचन ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र और बौद्ध-दर्शन में 'जेन बुद्धिज्म' सम्बन्धी साहित्य का विवेचन किया जायेगा। इस विवेचन में तुलनात्मक दृष्टिकोण नहीं है। साथ ही किसी भी प्रणाली की आलोचना भी नहीं की गयी है। मानव जीवन के समस्यामूलक आयाम का जो प्रयास तीनों प्रणालियों में किया गया है उसी का विवेचन करने का एक प्रयास है । एक महत्वपूर्ण बात और भी है, कि जब तक मानव स्वयं अपनी समस्याओं के सम्बन्ध में गहनतम रूप से चिन्तन और तीव्रता के साथ अनुभूति न करे, दूसरे के दिखाये गये मार्ग, प्रारम्भ में उसे उपयोगी लग सकते हैं, परन्तु अन्ततोगत्वा वे मार्ग उसका साथ नहीं दे पाते । ऐसी भी सम्भावना है कि वे उसके लिए बोझ बन जायें । प्राचीनकाल से दार्शनिक पृष्ठभूमि पर जो मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं वे या तो व्यक्तिगत समझ के परिणाम हैं
* हिन्दू, बौद्ध, जैन अथवा हिन्दू-जैन, हिन्दू-बौद्ध आदि का क्रमिक विवाद उठाना यहाँ अभिप्रेत नहीं है।
-सम्पादक
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