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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
(६) महासती सल्लेकुंवरजी-आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी और आपका उदयपुर में ही मेहता परिवार में पाणिग्रहण हुआ। आपने महासतीजी के उपदेश को सुनकर वैराग्य-भावना जागृत हुई और अपनी पुत्री सज्जनकुँवर के साथ आपने आहती दीक्षा ग्रहण की । आप सेवापरायणा साध्वी थीं।
(७) महासती सज्जनकंवरजी-आपकी माता का नाम सल्लेकुंवर था और आपने माँ के साथ ही महासती जी की सेवा में दीक्षा ग्रहण की थी।
(८) महासती तीजकंवरजी-आपकी जन्मस्थली उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गाँव में थी। आपका पाणिग्रहण उसी गांव में सेठ रोडमलजी भोगर के साथ सम्पन्न हुआ। गृहस्थाश्रम में आपका नाम गुलाबदेवी था। आपके दो पुत्र थे जिनका नाम प्यारेलाल और भैरूलाल था तथा एक पुत्री थी जिनका नाम खमाकुंवर था। आपने महासतीजी के उपदेश से प्रभावित होकर दो पुत्र और एक पुत्री के साथ दीक्षा ग्रहण की। आपके पति का स्वर्गवास बहुत पहले हो चका था। आपश्री ने श्रमणीधर्म स्वीकार करने के पश्चात् नौ बार मासखमण की तपस्याएँ की, सोलह वर्षों तक आपने एक घी के अतिरिक्त दूध, दही, तेल और मिष्टान इन चार विगयों का त्याग किया। एक बार आपको प्रातःकाल सपना आया-आपने देखा कि एक घड़े के समान बृहत्काय मोती चमक रहा है। अतः जागृत होते ही आपने स्वप्नफल पर चिन्तन करते हुए विचार किया है अब मेरा एक दिन का ही आयु शेष है। अत: संथारा कर अपने जीवन को पवित्र बनाऊँ । आपने संथारा किया और एक दिन का संथारा कर स्वर्गस्थ हुई ।
. (8) परम विदुषी महासती श्री सोहनकुंवरजी---आपश्री की जन्मस्थली उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गाँव में थी और जन्म सं० १९४६ (सन् १८६२) में हुआ। आपके पिताश्री का नाम रोडमलजी और माता का नाम गुलाबदेवी था और आपका सांसारिक नाम खमाकुंवर था। नौ बरस की लघुवय में ही आपका वाग्दान डुलावतों के गुडे के तकतमलजी के साथ हो गया। किन्तु परम विदुषी महासती रायकुंवरजी और कविवर्य पं० मुनि नेमीचन्दजी महाराज के त्याग-वैराग्ययुक्त उपदेश को श्रवण कर आपमें वैराग्य भावना जाग्रत हुई और जिनके साथ वाग्दान किया गया था उनका सम्बन्ध छोड़कर अपनी मातेश्वरी और अपने ज्येष्ठ भ्राता प्यारेलाल और भैरूलाल के साथ क्रमशः महासती राजकुंवरजी और कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज के पास जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की। आपकी दीक्षा स्थली पचभद्रा (बाडमेर) में थी और दोनों ने शिवगंज (जोधपुर) में दीक्षा ग्रहण की। उस समय आपके भ्राताओं की उम्र १३ और १४ वर्ष की थी और आपकी उम्र वर्ष की। दोनों भ्राता बड़े ही मेधावी थे। कुछ ही वर्षों में उन्होंने आगम साहित्य का गहरा अध्ययन किया। किन्तु दोनों ही युवावस्था में क्रमशः मदार (मेवाड़) और जयपुर में संथारा कर स्वर्गस्थ हुए।
खमावर का दीक्षा नाम महासती सोहन कुंवरजी रखा गया। आप बालब्रह्मचारिणी थी। आपने दीक्षा ग्रहण करते ही आगम साहित्य का गहरा अध्ययन प्रारम्भ किया और साथ ही थोकड़े साहित्य का भी। आपने शताधिक रास, चौपाइयाँ तथा भजन भी कण्ठस्थ किये । आपकी प्रवचन शैली अत्यन्त मधुर थी। जिस समय आप प्रवचन करती थीं विविध आगम के रहस्यों के साथ रूपक, दोहे, कवित्त, श्लोक और उर्दू शायरी का भी यत्र-तत्र उपयोग करती थी। विषय के अनुसार आपकी भाषा में कभी ओज और कभी शान्तरस प्रवाहित होता था और जनता आपके प्रवचनों को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाती थी।
अध्ययन के साथ ही तप के प्रति आपकी स्वाभाविक रुचि थी। माता के संस्कारों के साथ तप की परम्परा आपको वारिस में मिली थी। आपने अपने जीवन की पवित्रता हेतु अनेक नियम ग्रहण किये थे, उनमें से कुछ नियमों की सूची इस प्रकार है
(१) पंच पर्व दिनों में आयंबिल, उपवास, एकासन, नीवि आदि में से कोई न कोई तप अवश्य करना ।
(२) बारह महीने में छह महीने तक चार विगय ग्रहण नहीं करना । केवल एक विगय का ही उपयोग करना ।
(३) छः महीने तक अचित्त हरी सब्जी आदि का भी उपयोग नहीं करना । (४) चाय का परित्याग।
(५) उन्होंने महासती कुसुमवतीजी, महासती पुष्पवतीजी और महासती प्रभावतीजी* ये तीन शिष्याएँ * इन तीनों का परिचय हमने 'वर्तमान युग की साध्वियाँ' के परिचय में दिया है । —ले. राजेन्द्रमुनि साहित्यरत्न
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