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शासन-प्रभाविका अमर साधिकाएं
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हृदय गति एकाएक रुक जाने से उनका प्राणान्त हो गया है। उन्होंने सदा के लिए आँखें मूंद ली हैं। ये सुनते ही सद्दाजी ने तीन दिन का उपवास कर लिया और दूध-दही, घी, तेल और मिष्ठान्न इन पाँचों विगय का जीवन पर्यन्त के लिए त्याग कर दिया। भोजन में केवल रोटी और छाछ आदि का उपयोग करना ही रखकर शेष सभी वस्तुओं का त्याग कर दिया। पति मर गया, किन्तु उन्होंने रोने का भी त्याग कर दिया। सास-ससुर दोनों आकर फूट-फूट कर रोने लगे, सद्दाजी ने उन्हें समझाया-अब रोने से कोई फायदा नहीं है। केवल कर्म-बन्धन होगा। इसलिए रोना छोड़ दें। आपका पुत्र आपको छोड़कर संसार से बिदा हो चुका है। ऐसी स्थिति में मैं भी अब संसार में नहीं रहूंगी और श्रमणधर्म को स्वीकार करूंगी। सास और ससुर ने विविध दृष्टियों से समझाने का प्रयास किया किन्तु सद्दाजी की वैराग्य भावना इतनी दृढ़ थी कि वे विचलित नहीं हुई। देवर रामलाल ने भी सद्दाजी से कहा कि आप संसार का परित्याग न करें। पुत्र को दत्तक लेकर आराम से अपना जीवन यापन करें। किन्तु सद्दाजी इसके लिए प्रस्तुत नहीं थीं। उनके भ्राता मालचन्दजी और बालचन्दजी ने भी आकर बहन को संयम साधना की अतिदुष्करता बतायी। किन्तु सद्दाजी अपने मन्तव्य पर दृढ़ रहीं।
उस समय आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी महासती भागाजी की शिष्या महासती वीराजी जोधपुर में विराज रही थी। मेहता परिवार भी महासतीजी के निर्मल चारित्र से प्रभावित था। उन्होंने कहा तुम महासतीजी के पास सहर्ष प्रव्रज्या ग्रहण कर सकती हो किन्तु हम उन्हें जोधपुर में कभी भी दीक्षा नहीं लेने दे सकते। यदि तुम्हें दीक्षा ही लेनी है तो जोधपुर के अतिरिक्त कहीं भी ले सकती हो। सद्दाजी ने बाडमेर जिले के जसोल ग्राम में वि० सं० १८७७ में महासती वीराजी के पास संयमधर्म स्वीकार किया। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने विनयपूर्वक अठारह शास्त्र कण्ठस्थ किये, सैकड़ों थोकड़े और अन्य दार्शनिक धार्मिक ग्रन्थ भी। इसके बाद देश के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर धर्म की अत्यधिक प्रभावना की।
सद्दाजी की अनेक शिष्याएँ हुई । उनमें फत्तूजी, रत्नाजी, चेनाजी और लाधाजी ये चार मुख्य थीं। चारों में विशिष्ट विशेषताएँ थीं। महासती फत्तूजी का विहार-क्षेत्र मुख्यरूप से मारवाड़ रहा और उनकी शिष्याएँ भी मारवाड़ में ही विचरण करती रहीं। आज पूज्य श्रीअमरसिंहजी महाराज की सम्प्रदाय की मारवाड़ में जो साध्वियां हैं, वे सभी फत्तूजी के परिवार की हैं और महासती रत्नाजी का विचरण क्षेत्र मेवाड़ में रहा। इसलिए मेवाड़ में जितनी भी साध्वियां हैं वे रत्नाजी के परिवार की हैं। महासती चेनाजी में सेवा का अपूर्व गुण था तथा महासती लाधाजी उग्र तपस्विनी थीं। इन दोनों की शिष्या-परम्परा उपलब्ध नहीं होती है।
महासती श्री सद्दाजी ने अनेक मासखमण तथा कर्मचूर और विविध प्रकार के तप किये । तप आदि के कारण शारीरिक शक्ति विहार के लिए उपयुक्त न रहने पर वि० सं० १६०१ में वे जोधपुर में स्थिरवास ठहरी । महासती फत्तू जी और रत्नाजी को उन्होंने आदेश दिया कि वे घूम-घूम कर अत्यधिक धर्मप्रचार करें। उन्होंने राजस्थान के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर अनेकों बहनों को प्रव्रज्या दी। सं० १९२१ में महासती फत्तूजी और रत्नाजी ने विचार किया कि इस वर्ष हम सब गुरुणीजी की सेवा में ही वर्षावास करेंगी। सभी महासती सद्दाजी की सेवा में पहुँच गयीं। आषाढ़ शुक्ला पंचमी के दिन महासती सद्दाजी ने तिविहार संथारा धारण किया। सद्गुरुणीजी को संथारा धारण किया हुआ देखकर उनकी शिष्या महासती लाधा जी ने भी संथारा कर लिया और सद्गुरुणी जी से कुछ दिनों के पूर्व ही स्वर्ग पहुँच गईं। संथारा चल रहा था, महासतीजी ने अपनी शिष्याओं को बुलाकर अंतिम शिक्षा देते हुए कहा- "अपनी परम्परा में ब्राह्मण और वैश्य के अतिरिक्त अन्य वर्णवाली महिलाओं को दीक्षा नहीं देना, तथा मैंने अन्य जो समाचारी बनायी है, उसका पूर्णरूप से पालन करना । तुम वीरांगना हो । संयम के पथ पर निरन्तर बढ़ती रहना । चाहे कितने भी कष्ट आवें उन कष्टों से घबराना नहीं। सद्गुरुणीजी की शिक्षा को सुनकर सभी साध्वियाँ गद्गद हो गयीं।" उन्हें लगा कि अब सद्गुरुणीजी लम्बे समय की मेहमान नहीं हैं। हमें उनकी आज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन करना ही चाहिए । भाद्रपद सुदी एकम के दिन पचपन दिन का संथारा कर वे स्वर्ग पधारी। इस प्रकार पैतालीस वर्ष तक महासती सहाजी ने संयम की साधना, तप की आराधना की। आज भी महासती सद्दाजी की शिष्या-परिवार में पचास से भी अधिक साध्वियां हैं।
महासती रत्नाजी की शिष्या-परिवार में शासन-प्रभाविका लछमाजी का नाम विस्मृत नहीं किया जा सकता । इनका जन्म उदयपुर राज्य के तिरपाल ग्राम में सं० १९१० में हुआ था । आपके पिता का नाम रिखबचन्दजी माण्डोत और माता का नाम नन्दूबाई था । आपके दो भ्राता थे किसनाजी और बच्छराज जी। आपका पाणिग्रहण मादडा गाँव
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