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महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज १३३
सिवाना लाये और उनकी अत्यधिक सेवा करके उन्हें स्वस्थ किया। तपस्वी हिन्दूमलजी महाराज ने चौदह वर्ष तक संयम साधना और उग्र तप की आराधना की। अन्तिम चार वर्षों में वृद्धावस्था और रुग्णावस्था के कारण उनमें चलने का सामर्थ्य नहीं था । तब अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज के आदेश को शिरोधार्य कर चार वर्ष तक उनकी अत्यधिक सेवा की । नन्दीसेन मुनि की तरह अग्लानभाव से आपको सेवा करने में आनन्द की अनुभूति होती थी । अपनी सम्प्रदाय के सन्तों की तो सेवा करते ही थे, किन्तु अन्य सम्प्रदाय के सन्तों की सेवा का प्रसंग उपस्थित होने पर भी आप पीछे नहीं रहते थे ।
एक बार आचार्य रघुनाथमलजी महाराज की सम्प्रदाय के सन्त कालूरामजी महाराज अत्यधिक अस्वस्थ हो गये थे । उस समय उनकी सेवा में कोई भी सन्त नहीं था । जब आपश्री को यह ज्ञात हुआ, तो गुरुजनों की आज्ञा लेकर उनकी सेवा में समदडी पहुँचे और मन लगाकर सेवा की। अन्त में कालूरामजी महाराज को बीस दिन का संथारा आया उस समय आपकी सेवा प्रशंसनीय रही। आपश्री ने ज्येष्ठमलजी महाराज, नेमीचन्द महाराज, मुलतानमलजी महाराज, दयालचन्दजी महाराज, उत्तमचन्दजी महाराज, बाघमलजी महाराज, हजारीमलजी महाराज आदि सन्तों की अत्यधिक सेवाएँ कीं । सेवा आपका जीवन व्रत था । जिस असिधारा व्रत पर चलते समय बड़े-बड़े वीर भी घबरा जाते हैं, किन्तु आपने सेवा का ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया ।
आपश्री को जब सेवा से अवकाश मिलता तब आप ग्रन्थों को प्रतिलिपियाँ उतारते थे । आपके अक्षर मोती के समान सुन्दर थे । आपश्री ने रामायण, महाभारत, श्रेणिकचरित्र, आदि चरित्र और सैकड़ों भजन, चौपाइयाँ लिखीं । आपकी प्रवचन- कला अत्यन्त आकर्षक थी। जब आप प्रवचन करते तब सभा मन्त्रमुग्ध हो जाती थी । हास्यरस, करुणरस, वीररस और शान्तरस सभी रसों की अभिव्यक्ति आपकी वाणी में सहज होती थी। उसके लिए आपको किंचित्मात्र भी प्रयत्न नहीं करना पड़ता था । आपकी वाणी में मृदुता, मधुरता और सहज सुन्दरता थी 1 वक्तृत्वकला स्वभाव से ही आपको प्राप्त हुई थी । किस समय, क्या बोलना, कैसे बोलना, कितना बोलना यह आप अच्छी तरह से जानते थे । जहाँ-जहाँ भी आप गये वहाँ आपका जय-जयकार होता रहा ।
आपश्री का वि० सं० १९९१ का चातुर्मास ब्यावर में था । ब्यावर सदा से संघर्ष का केन्द्र रहा है । वहाँ का संघ तीन विभागों में विभक्त है— प्रथम स्थानक के अनुयायी, दूसरे आचार्य जवाहरलालजी महाराज को मानने वाले और तीसरे जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के अनुयायी थे। स्थानक वालों में तथा दिवाकरजी महाराज के अनुयायियों में परस्पर सद्भाव था जिससे एक वर्ष उनका चातुर्मास और द्वितीय वर्ष स्थानक का चातुर्मास होता था । किन्तु उस वर्ष ऐसा वातावरण बना कि तीनों संघों ने मिलकर आपश्री के चातुर्मास की प्रार्थना की। संगठन, स्नेह सद्भावना की वृद्धि को संलक्ष्य में रखकर आपने चातुर्मास स्वीकार किया और आपके प्रचचनों की ऐसी धूम मची कि सभी श्रोता विस्मित हो गये। आप प्रवचनों में आगमिक गम्भीर रहस्यों को रूपक, लोककथाओं, उक्तियों व संगीत के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त करते थे कि श्रोत झूम उठते ।
आपश्री संगठन के प्रबल पक्षधर थे । स्थानकवासी परम्परा में विभिन्न मतों को देखकर आपका हृदय द्रवित हो गया था। आपने स्थानकवासी समाज की एकता के लिए प्रबल प्रयत्न किया जिसके फलस्वरूप सर्वप्रथम विक्रम संवत् १६८८ में पाली के पवित्र प्रगण में मरुधर प्रान्त में विचरने वाले छह सम्प्रदायों के महारथियों का सम्मेलन हुआ और आपश्री के प्रबल पुरुषार्थ से संगठन का सु-मधुर वातावरण तैयार हुआ। उस सम्मेलन के कारण संघ में एक उत्साहपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ और बृहत साधु-सम्मेलन, अजमेर की भूमिका तैयार हुई। अजमेर में विराट सम्मेलन हुआ । उस सम्मेलन में भी आपश्री ने स्थानकवासी समाज की एकता पर अत्यधिक बल दिया। सन् १९५२ में जो सादड़ी सम्मेलन हुआ उस वर्ष आपश्री का वर्षावास सादड़ी में था और आपकी ही प्रबल प्रेरणा से सादड़ी में सन्त सम्मेलन हुआ । उसमें आपश्री ने अत्यधिक निष्ठा के साथ कार्य किया । आपश्री का कार्य नींव की ईंट के रूप में था, यद्यपि वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ में आप सबसे बड़े थे, तथापि आपश्री में तनिक मात्र भी अहंकार नहीं था। संघ की प्रगति किस तरह हो, यही चिन्तन आपश्री का था । आपश्री को पद का किंचित् मात्र भी लोभ नहीं था । यही कारण था कि सादड़ी सन्त सम्मेलन में आपको पद देने के लिए अत्यधिक आग्रह भी किया गया। किन्तु पद लेना आपश्री ने स्वीकार नहीं किया। यह थी आपकी पूर्ण निस्पृहता ।
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