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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
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आप आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। वि० संवत् १९८३ में मोकलसर ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके सुशिष्य उत्तमचन्दजी महाराज थे जो मेवाड़ के कपासन ग्राम के सन्निकट एक लघु ग्राम के निवासी थे। आप जाति से मालाकार थे। वि० संवत् १९५६ में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप आगम साहित्य व थोकड़े साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। आपकी प्रकृति बहुत ही भद्र थी। आपका प्रवचन मधुर होता था। वि० संवत् २००० में मोकलसर ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। आपश्री के दो शिष्य थे--जुवारमलजी महाराज और वाघमलजी महाराज, जिनकी क्रमशः जन्मभूमि वागावास और पाटोदी थी। जुवारमलजी महाराज तपस्वी थे। आपकी प्रकृति सरल और भद्र थी। वाघमलजी महाराज को थोकड़ों का बहुत ही अच्छा परिज्ञान था। आपको सैकड़ों थोकड़े कण्ठस्थ थे।
आचार्यश्री के सातवें शिष्य ताराचन्दजी महाराज थे, जिनका परिचय अगले पृष्ठों में दिया गया है। आपश्री के सुशिष्य उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज, पंडित हीरामुनिजी महाराज और तपस्वी भैरूलालजी महाराज ये तीन शिष्य हैं। उपाध्यायश्री के देवेन्द्रमुनि, शांतिमुनि, गणेशमुनि रमेशमुनि और दिनेशमुनि शिष्य हैं और देवेन्द्रमुनि के राजेन्द्रमुनि तथा गणेशमुनि के जिनेन्द्रमुनि और प्रवीणमुनि शिष्य हैं। इनका परिचय वर्तमान युग के सन्त-सती वुन्द के परिचय लेख में दिया गया है।
पंडित प्रवर श्री पूनमचन्दजी महाराज महान प्रतिभासम्पन्न थे । विक्रम संवत् १९५० में माघ कृष्णा सप्तमी को जोधपुर में चविध संघ ने आपश्री को योग्य समझ कर आचार्य पद प्रदान किया। आचार्यश्री ज्ञानमलजी महाराज का स्वर्गवास संवत् १९३० में हुआ था। उसके पश्चात् बीस वर्ष तक आचार्य पद रिक्त रहा, यद्यपि आपश्री आचार्य की तरह संघ का संचालन करते रहे। किन्तु पारस्परिक मतभेद की स्थिति के कारण एकमत से निर्णय नहीं हुआ था । इसका मूल कारण यह भी था कि आचार्यप्रवर ज्ञानमलजी महाराज ने अपना उत्तराधिकारी पूर्वघोषित नहीं किया था जिसके फलस्वरूप यह स्थिति उत्पन्न हुई थी। किन्तु आपश्री संघ का कुशल संचालन करते रहे जिससे प्रभावित होकर अन्त में संघ ने आपश्री को आचार्य चुना।
वि० सं० १६५२ का चातुर्मास आचार्यप्रवर का अपनी जन्मभूमि गढ़जालोर में था। प्रस्तुत वर्षावास में आचार्यश्री के तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होकर शताधिक व्यक्ति जैनधर्म के अभिमुख हुए। जैनधर्म और जैन संस्कृति में पण्डित-मरण का अत्यधिक महत्व है। प्रतिपल प्रतिक्षण साधक की यही प्रशस्त भावना रहती है कि वह दिन कब होगा जब मैं पण्डित-मरण को प्राप्त करूँगा। आचार्यप्रवर जागरूक थे। शरीर में कुछ व्याधि समुत्पन्न होने पर आचार्यश्री ने वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए संल्लेखना सहित संथारा ग्रहण किया। ग्यारह दिन का संथारा आया और सं० १६५२ के भाद्रपद पूर्णिमा के दिन आपने समाधिपूर्वक स्वर्ग की राह ली।
सहस्राधिक भावुक भक्तगण जय-जय के गगनभेदी नारों से चतुर्दिशाओं को मुखरित करते हुए शोभायात्रा की तैयारी करने लगे। जनता ने श्रद्धावश एक भव्य विमान का निर्माण किया था। उसमें आचार्यप्रवर का विमुक्त शरीर रखा गया था। सभी उसे लेकर श्मशान पहुँचे। शरीर का दाहसंस्कार करने के लिए चन्दन की चिता लगायी गयी । ज्योतिपुञ्ज का वह विमुक्त शरीर पुनः ज्योति से प्रज्वलित हो उठा। अगरु की सुगन्ध से वातावरण महक उठा। घी, कपूर और नारियलों का प्रज्वलन वातावरण को सुरभित कर रहा था। लोगों ने देखा आचार्यप्रवर का दिव्य देह विमान सहित जल गया है किन्तु विमान पर जो तुर्रा था वह अग्निस्नान करने पर भी प्रह्लाद की तरह जला नहीं है । श्रद्धालु श्रावकगण वीर हनुमान की तरह उसे लेने के लिए लपके किन्तु वह इन्द्र धनुष की तरह रंग-बिरंगे रंग परिवर्तन करता हुआ पक्षी की तरह उड़कर अनन्त गगन में विलीन हो गया । अद्भुत आश्चर्य से सभी विस्मित थे।
वहाँ से सभी श्रावकगण स्नान के लिए जलकुंड पर पहुँचे। वहाँ का जल केशर की तरह रंगीन, गुलाबजल की तरह सुगन्धित और गंगाजल की तरह निर्मल व शीतल था जिसे देखकर सभी चकित हो गये और उनके हत्तन्त्री के सुकुमार तार झनझना उठे । आश्चर्य ! महान् आश्चर्य !! धन्य है आचार्यश्री को जिन्होंने स्वर्ग में पधार करके भी नास्तिकों को आस्तिक बनाया। प्रस्तुत घटना प्रत्यक्षद्रष्टा श्रावकों के मुंह से मैंने सुनी। वस्तुतः आचार्यप्रवर का जीवन महान् था। वे महान् प्रभावशाली आचार्य थे। और उन्होंने अपने आचार्यकाल में हर दृष्टि से शासन का विकास करने का प्रयत्न किया।
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