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युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्यश्री अमर्रासहजी महाराज : व्यक्तित्व और कृतित्व १०३
ठहराया है? मैंने तो आपको महलों में ठहराया था। आपको यहाँ पर बहुत ही कष्ट हुए होंगे। कृपया मुझे नाम बताइये जिससे उस दुष्ट को दण्ड दिया जा सके । आचार्यश्री ने कहा- जिसने मुझे यहाँ पर ठहराया उसने मेरे पर महान् उपकार किया है। यदि वह मुझे न ठहराता तो मैं उतना कार्य नहीं कर पाता, वर्षों तक प्रयत्न करने पर जितना प्रचार नहीं हो सकता था, उतना प्रचार यहाँ ठहराने से एक ही दिन में हो गया। वह तो हमारा बहुत बड़ा उपकारी है, उसे दण्ड नहीं किन्तु पुरस्कार देना चाहिए जिसके कारण हम इतनी धर्म की प्रभावना कर सके। आचार्यश्री की उदात्त भावना को देखकर दीवान खींवसीजी चरणों में गिर पड़े -भगवन् ! आप तो महान् हैं । अपकार करने वाले पर भी जो इस प्रकार की सद्भावना रखते हैं। वस्तुतः आपके गुणों का उत्कीर्तन करना हमारी शक्ति से परे है। आचार्य प्रवर के प्रबल प्रभाव से यतियों के प्रमुख गढ़ जोधपुर में धर्म की विजय वैजयन्ती फहराने लगी । यतिगणों का प्रभाव उसी तरह क्षीण हो गया जिस तरह सूर्य के उदय होने पर तारागणों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। वे मन ही मन पश्चात्ताप करने लगे कि हमने बहुत ही अनुचित किया । यदि हम ऐसा नहीं करते तो उनके धर्म का प्रचार नहीं हो पाता। हमारा प्रयास उन्हीं के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ ।
जोधपुर संघ की प्रार्थना को सन्मान देकर आचार्यप्रवर ने संवत् १७६८ का चातुर्मास जोधपुर में किया । उस वर्ष जोधपुरनरेश महाराजा अजितसिंहजी अनेकों बार आचार्यप्रवर के प्रवचनों में उपस्थित हुए और आचार्य प्रवर के उपदेश से प्रभावित होकर शिकार आदि न करने की प्रतिज्ञाएं ग्रहण की और हजारों व्यक्तियों ने आचार्य श्री के सत्संग से अपने जीवन को निखारा वर्षावास में श्रेष्ठिप्रवर रंगलालजी पटवा जयपुर से आचार्यप्रवर के दर्शनार्थ उपस्थित हुए। उन्होंने आचार्यश्री से विवेदन किया- भगवन् ! आपश्री के उपदेश से प्रभावित होकर मैंने श्रावक के व्रत ग्रहण किये थे। परिग्रहपरिमाणव्रत में मैंने पांच हजार रखने का विचार किया था, किन्तु आपश्री के संकेत से मैंने पच्चीस लाख की मर्यादा की । उस समय मेरे पास पाँच सौ की भी पूंजी नहीं थी । पर भाग्य ने साथ दिया। जो भी व्यापार किया उसमें मुझे अत्यधिक लाभ ही लाभ हुआ । नवीन मकान बनाने के लिए ज्यों ही नींव खोदी गयी उसमें पच्चीस लाख से भी अधिक की सम्पत्ति मिल गई । मैं चिन्तन करने लगा कि कहीं मेरा नियम भंग न हो जाय, अतः उदार भावना के साथ मैंने दान देना प्रारम्भ किया। किन्तु दिन दूनी रात चौगुनी लक्ष्मी बढ़ती ही गयी । तब मुझे अनुभव हुआ कि दान देने से लक्ष्मी घटती नहीं किन्तु बढ़ती है। एक शायर ने इस तथ्य को इस रूप में कहा है
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जकाते माल बदर कुनके, फजले ए रजरा । यो बाग व बेशतर विद अंगूर ॥ तरह लक्ष्मी बढ़ती है जैसे
अर्थात् — दान देने से उसी
अंगूर की शाखा काटने से वे और अधिक मात्रा में
आते हैं ।
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गुरुदेव ! एक बहुत ही आश्चर्य की घटना हुई अपराह्न का समय था, एक अवधूत योगी हाथ में तुम्बी लेकर आया और जयपुर की सड़कों पर और गलियों में यह आवाज लगाने लगा है कोई माई का लाल जो मेरी इस तुंबी को अशर्फियों से भर दे । जब मेरे कर्ण-कुहरों में यह आवाज आयी तब मैंने योगी को अपने पास बुलाया और स्वर्ण मुद्राओं से तुंबी को भरने लगा। हजारों स्वर्ग मुद्राएँ डालने पर भी तुंबी नहीं भरी में मुद्राएँ लेने के लिए अन्दर जाने के लिए प्रस्तुत हुआ । योगी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा- हम साधुओं को स्वर्णमुद्राओं से क्या लेनादेना । साधु तो कंचन और कामिनी का त्यागी होता है। उसने पुनः तुंबी खाली कर दी और कहा- मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए स्वर्ग से आया हूँ। मैंने सोचा, तुम नियम पर कितने दृढ़ हो । तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, यह कहकर वह अन्तर्धान हो गया। गुरुवर्य ! वे सारी स्वर्ण मुद्राएँ मैंने गरीबों को, जिन्हें आवश्यकता थी, उनमें वितरण कर दीं। वस्तुतः गुरुदेव, आपका ज्ञान अपूर्व है । आपश्री नियम दिलाते समय यदि मुझे सावधान न करते तो सम्भव है मैं नियम का पूर्ण रूप से पालन नहीं कर पाता । दीर्घकाल से आप श्री के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा थी, वह आज पूर्ण हुई। कुछ दिनों तक श्रेष्ठिवर्य रंगलालजी आचार्यश्री की सेवा में रहे और पुनः लौटकर वे जयपुर पहुँच गये । इस वर्षावास में अत्यधिक धर्म की प्रभावना हुई । वर्षावास पूर्ण होने पर आचार्यप्रवर ने मारवाड़ के विविध ग्रामों में धर्म का प्रचार किया और पाली चातुर्मास किया। उसके पश्चात् सोजत और जालोर चातुर्मास किये। आचार्यप्रवर ने अथक परिश्रम से मारवाड़ के क्षेत्रों में धर्मप्रचार किया था । उस समय पूज्यश्री धर्मदास जी महाराज के शिष्य पूज्यश्री धन्नाजी महाराज जो साचौर में धर्मप्रचार कर रहे थे उन्होंने सुना कि आचार्यप्रवर अमरसिंहजी
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