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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
और रजोहरण ये दो आवश्यक हैं, अन्य उपकरण चाहे हो या न हो। फिर स्थविरकल्पिकों के लिए तो मुखवस्त्रिका अनिवार्य है।
भगवती सूत्र में २ स्पष्ट कहा है कि जब खुले मुंह बोला जाता है तब सावध भाषा होती है ।
महानिशीथ जिसे स्थानकवासी परम्परा प्रमाणभूत आगम नहीं मानती है उसमें यह विधान है कान में डाली गयी मुंहपत्ती के बिना या सर्वथा मुंहपत्ती के बिना इरियावही क्रिया करने पर साधु को मिच्छामि दुक्कडं या दो पोरसी का (पूर्वार्द्ध) दण्ड आता है । ३३
योगशास्त्र में भी कहा है मुख से निकलने वाले उष्ण श्वास से वायु काय के जीवों की तो विराधना होती है किन्तु त्रस जीवों के मुख में प्रवेश की भी सम्भावना सदा रहती है तथा अकस्मात् आयी हुई खाँसी, छींक आदि से यूंक शास्त्रों या कपड़ों पर गिरने की सम्भावना रहती है, अतः मुखवस्त्रिका इन सभी का समीचीन उपाय हैं।
आगम साहित्य में यत्र-तत्र मुखवस्त्रिका मुंह पर बाँधने का विधान प्राप्त होता है। जैसे ज्ञातासूत्र में तेतली प्रधान को उसकी धर्मपत्नी अप्रिय हो गयी। तो वह दान आदि देकर समय व्यतीत करने लगी। उस समय तेतलीपुर में महासती सुव्रताजी का आगमन हुआ। वे भिक्षा के लिए तेतली प्रधान के घर पर पहुँची, तब तेतली प्रधान की अप्रिय पत्नी पोट्टिला ने साध्वीजी को आहारदान दिया और उसके पश्चात् उसने साध्वीजी से पूछाआप अनेकों नगरों में परिभ्रमण करती हैं कहीं पर ऐसी जड़ी-बूटी या वशीकरण आदि मन्त्र के उपाय देखे हों तो बताने का अनुग्रह कीजिए जिससे मैं पुनः अपने पति की हृदयहार बन जाऊँ । यह सुनते ही महासतीजी ने अपने दोनों कानों में दोनों हाथों की अंगुलियाँ डाल दी और कहा-भो देवानुप्रिये ! हमें इस प्रकार के शब्द कानों से सुनना भी नहीं कल्पता। फिर ऐसा मार्ग बताना तो दूर रहा । इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि साध्वीजी के मुंह पर मुखवस्त्रिका बाँधी हुई होनी चाहिए नहीं तो दोनों हाथ दोनों कानों में डालकर खुले मुँह कैसे बोलती ? निरयावलिका में उल्लेख है सोमिल ब्राह्मण ने काष्ठ की मुंहपत्ती मुंह पर बाँधी थी। वैदिक परम्परा के संन्यासियों में मुंह पर काष्ठ की पट्टी बाँधने का विधान अन्यत्र देखने में नहीं आया है । इससे यह सिद्ध होता है जैन श्रमण मुँहपत्ती बाँधते थे और उसी का अनुसरण सोमिल ने काष्ठ पट्टी बाँध कर किया हो ।
भगवती में जमाली के दीक्षा ग्रहण करने के प्रसंग में नाई का उल्लेख है, उसने भी आठ परतवाली मुंहपत्ती मुंह पर बाँधी थी।
शिवपुराण ज्ञानसंहिता में" जैन श्रमण का लक्षण बताते हुए कहा है-हाथ में काष्ठ के पात्र धारण करने वाले, मुंह पर मुखवस्त्रिका बाँधने वाले, मलिन वस्त्र वाले, अल्पभाषी ही जैन मुनि हैं। उसमें यह भी बताया गया है कि इस प्रकार के जैन श्रमण ऋषभावतार के समय में भी थे।
श्रीमाल पुराण में* मुंह पर मुँहपत्ती धारण करने वाले जैन श्रमणों का वर्णन है । साथ ही भुवन भानुकेवली चरित्र, हरिबल मच्छी- रास, अवतारचरित्र, सम्यक्तमूल बारहवत की टीप, हितशिक्षानुरास, जैनरत्नकथाकोश, ओघ नियुक्ति आदि में मुखवस्त्रिका का वर्णन है।
आचार्यप्रवर के अकाट्य तर्कों से यति समुदाय परास्त हो गया। वह उत्तर न दे सका। और वहाँ से वे लौट गये। स्थानकवासीधर्म की पाली में प्रबल प्रभावना हुई। वहाँ से आचार्यप्रवर ने जोधपुर की ओर प्रस्थान किया। जब आचार्यश्री जोधपुर पधारे उस समय दीवान खींवसीजी भण्डारी ने आचार्यश्री का हृदय से स्वागत किया
और आचार्यप्रवर को तलहटी के महल में ठहरा दिया। राजकीय कार्य से खींवसीजी बाहर चले गये, तब यतिभक्तों ने सोचा कि किसी तरह से अमरसिंहजी महाराज को खत्म करना चाहिए।
यतिभक्तों ने सोचा कि ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे आचार्यश्री सदा के लिए खत्म हो जायें । जोधपुर में आसोप ठाकुर साहब की एक हवेली है जहाँ पर ठाकुर राजसिंह जोधपुरनरेश के बदले में जहर का प्याला पीकर मरे थे । वे व्यन्तर देव बने थे, वे रात्रि में अपनी हवेली में किसी को भी नहीं रहने देते थे। यदि कोई भूल से रह जाता तो उसे वे मार देते थे। अतः यतिभक्तों ने सोचा कि ऐसे स्थान पर यदि आचार्य अमरसिंहजी को ठहरा दिया जाय तो वे बिना प्रयास के समाप्त हो जायेंगे। उन्होंने महाराज अजितसिंह से प्रार्थना की-राजन् ! आप जिस महल के नीचे होकर परिभ्रमण करने के लिए जाते हैं, उस महल के ऊपर अमरसिंहजी साधु बैठे रहते हैं। वे आपको नमस्कार भी नहीं करते। हमसे आपका यह अपमान देखा नहीं जाता। राजा ने कहा-साधु फक्कड़ होते हैं। वे
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