SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 835
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .६८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड पर। और विनम्र निवेदन कानते ही हैं जैन साधु किसी बाधक कष्ट देते हैं । दीवान खींवसी जी विचार सागर में गोते लगाने लगे कि किस प्रकार आचार्यप्रवर को मारवाड़ में ले जाया जा सके। चिन्तन करते हुए उन्हें एक विचार आया और वे आचार्यप्रवर को नमस्कार कर बादशाह बहादुरशाह के पास पहुँचे। और विनम्र निवेदन करते हुए कहा-जहाँपनाह ! मैं आचार्यसम्राट श्री अमरसिंहजी महाराज को जोधपुर ले जाना चाहता हूँ। आपश्री जानते ही हैं जैन साधु किसी वाहन का उपयोग नहीं करते, वे पैदल चलते हैं। सम्प्रदायवाद के नशे में उन्मत्त बने हुए लोग इन साधुओं को भी अत्यधिक कष्ट देते हैं। उन्हें मार्ग में कोई कष्ट न हो, अतः आप शासन की ओर से ऐसा आज्ञा पत्र निकाल दें कि आचार्य अमरसिंहजी जो मारवाड में आ रहे हैं इन साधुओं को जो कष्ट देगा उनके साथ कड़क बर्ताव किया जायगा; खेतवाले का खेत, घर वाले का घर, गाँव वाले का गाँव और अधिकारियों का अधिकार छीन लिया जायगा। इस प्रकार बाईस ताम्रपत्रों पर आदेश लिखकर जोधपुर 'राज्य के बाईस परगनों में भिजवा दिये गये। दीवान खींवसीह जी प्रसन्नमुद्रा में आचार्य प्रवर के पास आये और उनसे सनम्र निवेदन किया-भगवन् ! अब आप मारवाड़ में पधारें। आपको मारवाड़ में किसी भी प्रकार कष्ट नहीं होगा। मैंने शासन की ओर से आज्ञा पत्र सभी स्थानों पर भिजवा दिये हैं। आचार्यश्री ने दीवान खींवसी जी भण्डारी की स्नेहपूर्ण प्रार्थना को स्वीकार किया और वर्षावास के पश्चात् आचार्यप्रवर ने देहली से मारवाड़ की ओर बिहार किया । दीवानजी भी अपना कार्य पूर्ण कर चुके थे, अतः उन्होंने भी वहाँ से जोधपुर की ओर प्रस्थान कर दिया। आचार्यश्री देहली से बिहार करते हुए अलवर पधारे। कुछ समय तक अलवर में विराज कर धर्म की प्रभावना की और वहाँ से जयपुर पधारे। पूज्यश्री के जयपुर पधारने पर जयपुर की भावुक जनता प्रति दिन हजारों की संख्या में प्रवचन सभा में उपस्थित होने लगी। पूज्यश्री ने अपने प्रवचन में अपरिग्रह का महत्व प्रतिपादन करते हुए कहा-जड़ वस्तुओं के अधिक संग्रह से मानव की आत्मा दब जाती है । उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है । मानव चाहे जितने व्रत ग्रहण करे किन्तु संग्रहवृत्ति पर नियन्त्रण न रखे तो उसको सच्चे आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। धर्मरूपी कल्पवृक्ष को परिग्रहवृत्ति जलाकर नष्ट कर देती है। चिन्ता-शोक को बढ़ाने वाला, तष्णारूपी विषवल्लरी को सींचने वाला, फूट-कपट का भण्डार और क्लेश का घर परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ है मन की ममता, व आसक्ति । जिनेश्वरदेव ने वस्तु के प्रति रहे ममत्व-भाव को परिग्रह कहा है "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।"२५ विश्व के सभी प्राणियों के लिए परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल नहीं है ।२५ इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त है । विश्व के पदार्थ ससीम हैं. किन्तु इच्छाएं असीम हैं, अतः कामनाओं का अन्त करना ही दुःख का अन्त करना है ।२८ प्रमत्तपुरुष धन के द्वारा न इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता, न परलोक में ।२९ पूज्यश्री के अ-परिग्रह के विश्लेषण को सुनकर रंगलालजी पटवा जो बहुत ही गरीब थे, उन्होंने निवेदन किया-भगवन्, मुझे पाँच हजार से अधिक परिग्रह न रखना है इसकी मर्यादा करवा दीजिए। आचार्यश्री ने रंगलाल जी के चेहरे की ओर देखकर कहा-नियम ग्रहण करने के पूर्व तुम्हें यह अच्छी तरह से सोच लेना चाहिए कि नियम भंग न हो । बाद में विचार करने की स्थिति पैदा न हो। रंगलाल जी पटवा ने निवेदन किया-भगवन्, मेरे पास पांच सौ से अधिक पूंजी ही नहीं है। मेरी आर्थिक स्थिति बड़ी नाजुक है। बड़ी कठिनता से मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ तथापि तृष्णा के वशीभूत होकर पाँच हजार की मर्यादा करना चाहता हूँ। और आपश्री मुझे पुनः चिन्तन के लिए फरमा रहे हैं । आचार्य श्री ने कहा-क्या नीति की कहावत तुम्हें स्मरण नहीं है ? "स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम् देवो न जानाति कुतो मनुष्यः" अतः मैं जो कह रहा हूँ वह सोच-विचार कह रहा हूँ। रंगलालजी ने सोचा कि आचार्यप्रवर जो कुछ कह रहे हैं इसमें गम्भीर रहस्य होना चाहिए। उन्होने बीस हजार की मर्यादा के लिए कहा तब भी आचार्यश्री ने वही बात दुहराई। रंगलालजी ने अन्त में पच्चीस लाख की मर्यादा की। आचार्यप्रवर ने कुछ दिनों तक जयपुर विराज कर किसनगढ़ की ओर प्रस्थान किया। किसनगढ़ से अजमेर होते हुए आचार्यश्री सोजत पधारे। सम्प्रदायवाद के अधिनायक यतिगण चितित हो गये कि यहाँ शुद्ध स्थानकवासी धर्म का प्रचार हो जायेगा तो हमारी दयनीय स्थिति बन जायगी। अतः उन्होंने अपने भक्तों को बुलाकर कहा कि कोई ऐसी व्यवस्था की जाय जिससे साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। यदि हम मारने का प्रयास करेंगे तो शासन की आज्ञा की अवहेलना होने से हमारी स्थिति विषम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy