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युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज : व्यक्तित्व और कृतित्व
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कहा-क्यों शीघ्रता करते हो, एक सामायिक कर लो। किन्तु श्रावक के मन में दृढ़ता कहाँ थी? उसने आपश्री के कथन की उपेक्षा की और बिना मांगलिक सुने ही चल दिया । मार्ग में सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और हथकड़ियाँ डालकर कारागृह में बन्द कर दिया। जब वह न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया गया तब न्यायाधीश ने कहा- मैंने इन सेठजी को नहीं किन्तु इनका नाम राशि जो स्वर्णकार है उसे बुलाया था। तुमने व्यर्थ ही सेठजी को परेशान किया। क्षमायाचना कर सेठजी को बिदा किया गया। तब सेठजी को ध्यान आया कि महाराजश्री की आज्ञा की अवहेलना करने का क्या परिणाम होता है।
एक बार आपश्री पटियाला विराज रहे थे। पटियाला सिक्खों का प्रमुख केन्द्र था। आपके प्रवचन में कुछ सिक्ख सरदार प्रतिदिन आया करते थे। मध्याह्न के समय एक सिक्ख सरदार आया। उसकी आँखों से आंसू टपक रहे थे । चेहरा उदास था । आपश्री ने उसकी उदासी का कारण पूछा । उसने कहा-गुरुजी ! मेरे एक ही लड़का है। रात को वह बिल्कुल ठीक सोया था, पता नहीं उसकी नेत्र ज्योति कैसे गायब हो गयी। उसे कुछ भी नहीं दीखता है । अभी तो वह बच्चा ही है। मैंने हकीमों और वैद्यों को आँख बतायी। उन्होंने कहा कि अब रोशनी नहीं आ सकती। यह कहकर उसकी आँखें डबडबा गयीं, गला भर आया । महाराजश्री ने कहा--बताओ, तुम्हारा लड़का कहाँ है ? सरदार ने कहागुरुदेव ! मैं अभी जाकर उसे ले के आता हूँ। गुरुदेवश्री ने बच्चे को मंगल पाठ सुनाया कि लड़का पहले से भी अधिक स्पष्ट रूप से देखने लगा। सरदारजी चरणों में गिर पड़े, और उनकी हत्तन्त्री के तार झनझना उठे---अमरसिंहजी महाराज देवता ही नहीं साक्षात् भगवान हैं।
एक बार अमरसिंहजी महाराज रोहतक विराज रहे थे। उस समय एक युवक आया। वह पारिवारिक संक्लेशों से संत्रस्त था । वह आत्महत्या करने का संकल्प लेकर ही घर से चला था। किन्तु आपश्री के मधुर वार्तालाप से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि सदा के लिए उसने क्रोध का परित्याग कर दिया। उसका पारिवारिक जीवन जो विषम था, जिसमें रात-दिन क्रोध की चिनगारियाँ उछलती रहती थीं, आपश्री के सत्संग से उस परिवार में स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार की अनेक घटनाएँ आपके पंजाब प्रवास के समय की मिलती हैं जो विस्तारभय से यहाँ नहीं लिखी जा रही हैं।
अमरसिंहजी महाराज प्रकाण्ड पण्डित, प्रभावक, प्रवचनकार और यशस्वी साधक थे। आपश्री को जैनअजैन जनता में सर्वत्र एक दिव्य महापुरुष जैसा सत्कार, सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त होती थी तथापि आपश्री के अन्तर्मानस में गुरुवर्य के प्रति अटूट श्रद्धा व भक्ति थी। उनके लिए आचार्य लालचन्दजी महाराज एक व्यक्ति नहीं किन्तु आदर्श थे। वे उनके प्रति समर्पित थे। समर्पण विनिमय के लिए नहीं होता, किन्तु जहाँ पर समर्पण होता है वहाँ विनिमय स्वतः ही हो जाता है। आचार्य लालचन्दजी महाराज के मन में अमरसिंहमुनिजी के प्रति पूर्ण विश्वास था। एक दिन किसी सन्त ने आचार्य लालचन्दजी महाराज से कहा कि अमरसिंहजी प्रतिलेखना सम्यक प्रकार से नहीं करते हैं। आचार्य लालचन्दजी महाराज ने बिना अमरसिंहजी को पूछे ही दृढ़ता के साथ कहा कि वह तुम्हारे से श्रेष्ठ करता है । विश्वास उसी का नाम है जिसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं होता।
अमरसिंह मुनिजी प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, आदि आचार्य लालचन्दजी महाराज के पास बैठ करके ही करते थे, अतः वे अमरसिंह मुनि की चर्या से पर्याप्त रूप से परिचित थे। उनके प्रति उनका आत्मीयभाव दिन प्रतिदिन बढ़ रहा था । उनकी कृपा उन पर अत्यधिक थी।
मुनि अमरसिंहजी जितने महान् थे उतने ही विनम्र भी थे। आप पुष्पित फलित विराट वृक्ष के समान ज्यों-ज्यों यशस्वी, महान् और प्रख्यात हुए त्यों-त्यों अधिक विनम्र होते गये । गुरुजनों के प्रति ही नहीं लघुजनों के प्रति भी आपके हृदय में अपार प्रेम था। जब कभी भी लघु श्रमण भी रुग्ण होते तब आपश्री उनकी स्नेह से सेवा करते थे। अहंकार और ममकार के दुर्गुणों से आप कोसों दूर थे। आपश्री सद्गुरुदेव के साथ ही पंजाब के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर धर्म की प्रबल प्रभावना करते रहे। हजारों व्यक्ति आपके उपदेशों से प्रभावित होकर श्रावक बने और सम्यक्त्वरत्न को प्राप्त किया । बीस व्यक्तियों ने आहती दीक्षा ग्रहण कर आपका शिष्यत्व स्वीकार किया।
संवत् १७६१ में आचार्यश्री लालचन्दजी महाराज का चातुर्मास अमृतसर में था। आचार्यश्री का स्वास्थ्य अस्वस्थ रहने लगा। उनके मन में स्वास्थ्य पूर्ण रूप से ठीक होने की सम्भावना क्षीण हो गई। उन्होंने इसी समय चतुर्विध संघ को बुलाकर उल्लास के क्षणों में अमरसिंह मुनि को युवाचार्य पद प्रदान किया। सभी ने आचार्यश्री की अनूठी सूझबूझ की प्रशंसा की। आचार्यश्री ने आलोचना व संलेखना कर संथारा ग्रहण किया।
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