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श्रमण-परम्परा में क्रियोबार
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जीवराजजी महाराज श्रेष्ठ वक्ता के साथ ही सुयोग्य कवि भी थे। यद्यपि उन्होंने किसी बृहदाकार कृति का सर्जन नहीं किया तथापि भक्तिमूलक चौबीसी की रचना की जिसमें स्तुतियों की प्रधानता है, जीवन के विविध अनुभवों का संचय है।
परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज के पास जीवराजजी महाराज के पद्यों का संग्रह है जो बहुत ही जीर्ण-शीर्ण और खण्डित स्थिति में है। कई स्थानों पर अक्षर चले भी गये हैं। पत्र का व्यास आठ अंगुल और आयाम १२ अंगुल हैं । २६ से ३६ और १६ से पहले के पन्ने नहीं हैं। ४५वें पन्ने में चौबीसी पूर्ण होती है। लेखन-काल और लेखक का परिचय अन्त में नहीं दिया गया है, पर ऐसा लगता है कि यह रचना कुछ समय के पश्चात् ही किसी ने लिखी है।
इस चौबीसी की रचना जीवराजजी महाराज ने की है और अपने आपको सोमजी का शिष्य बताया है। कुछ पद्यों के प्रान्त में रचनाकाल और स्थल का भी निर्देश किया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत रचना क्रमशः न कर जब भी कवि के अन्तर्मानस में भावलहरियाँ उद्बुद्ध हुईं तब उसने स्तुतियाँ निर्माण की हैं। इसके अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि कवि को प्रारम्भ में चौबीसी लिखने का विचार नहीं होगा। कुछ स्तवन बनाने के पश्चात् अवशिष्ट तीर्थंकरों के स्तवन उसमें सम्मिलित करके चौबीसी का रूप दिया होगा । यही कारण है कि भगवान महावीर की स्तुति १६७५ अषाढ़ सुदी १० को जेतपुर में की। एक वर्ष पश्चात् १६७६ के श्रावण सुदी ५ को बाबेल चातुर्मास में आदिनाथ की स्तुति की। फिर वर्षभर बाद सं० १६७७ भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को बालापुर में चन्द्रप्रभ तीर्थकर की स्तुति की। बीच के अन्य तीर्थंकरों की स्तुति सं० १६७६ विजयदशमी को बहादुरपुर में १७वें तीर्थंकर की स्तुति की है।
इस प्रकार प्रस्तुत चौबीसी स्तुति के पद विभिन्न क्षेत्रों में पाँच वर्ष के दीर्घ काल में पूर्ण किये गये हैं। इस चौबीसी की यह विशेषता है कि एक स्तवन कई ढालों में बनाया गया है जैसे ऋषभदेव का स्तवन ७५ गाथाओं में है। सर्वत्र तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन किया गया है। आपने "ऋषि सोमजी का शिष्य जीवराज बोले दया तणा फल दाखिए" इस में स्पष्ट रूप से अपने को सोमजी का शिष्य बताया है। आपका संयमकाल सत्रहवीं शती का उत्तरार्द्ध सुनिश्चित है। पर प्रश्न है कि सोमजी किनके शिष्य थे और आपके पास उन्होंने कब प्रव्रज्या ग्रहण की थी, यह अन्वेषणीय है। चौबीसी के पश्चात् दो-तीन पन्नों में मारवाड़ी अक्षरों में सोमजीकृत बारहमासा है, पर इससे भी यह ज्ञात नहीं होता कि ये सोमजी कौन थे और किसकी परम्परा के थे । सोलहवीं शती के ऋषि जीवाजी के पश्चात् सत्रहवीं शती में ऋषि जीवराजजी हुए हैं और सम्भव है यही क्रियोद्धारक जीवराज महाराज हों।
उनकी कृतियों से यह भी ज्ञात होता है कि उनका विहार क्षेत्र कौनसा प्रदेश रहा था। जिन पदों में उनका रचनाकाल दिया गया है उनका ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व होने के कारण कुछ उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैं---
संवत् सोल छिहोत्तरा बरषे श्रावण सुदि पंचमी सार ए। वावेल चौमासि मन उल्लासिं कयूं स्तवन रविवार ए। जे भावे भणसई नित्य श्रुणसई सिद्ध थाय तस काज ए। कर जोडी हरष कोडी गुण जंपै ऋषि जीवराज ए॥
-आदिनाथस्तवन का अंतिम भाग संबत सोल पंचोत्तरा वरखे आषाढ़ सुद दसमी सार ए। शुक्रवारे तवन रच्यं जेतपुर नगर मझार ए । ऋषि सोमजी सदा सोभागी जेहनो जस अपार ए। तास सेवक ऋषि जीवराज जंप सकल संघ जयकार ए॥
-वीरस्तवन-अन्त भाग संवत् सोल सित्योत्तरा भाद्रवा सुदि आठम सार ए। मंगलवारे तवन कोधु बालापुर मझार ए। गल्ल भाव आणी भगति जाणी, तवन भणई जे एकमना । कर जोडी जीवराज बोलइ काज सरसइ तेहना ॥
-चन्द्रप्रभुस्तवन
भावे भणसा मन उल्ला धावण सुदि
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