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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
न करके अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से न्यायावतार की रचना की। इस लघु कृति में प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति इन चार तत्त्वों की जनदर्शन सम्मत व्याख्या करने का अनूठा प्रयास किया है। उन्होंने प्रमाण और उनके भेद-प्रभेदों का लक्षण किया है । अनुमान के सम्बन्ध में उनके हेत्वादि सभी अंग-प्रत्यंगों की संक्षेप में मार्मिक व्याख्या की है। प्रमाण के साथ नयों का लक्षण और विषय बताकर मनीषियों का ध्यान उस ओर आकर्षित किया। स्वमत के निरूपण के साथ ही परमत का निराकरण भी किया। इनके गुरु का नाम वृद्धवादी था। इनका अपर नाम कुमुदचन्द्र भी था। उज्जयिनी के महाकाल के मन्दिर में चमत्कार दिखाकर राजा को प्रतिबोध दिया । ये महान तेजस्वी आचार्य थे। वीर निर्वाण सं० ४०० के आसपास इनका अस्तित्व माना जाता है और ४८० में प्रतिष्ठानपुर में इनका स्वर्गवास माना जाता है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण-इनकी जन्मस्थली माता-पिता आदि के सम्बन्ध में कुछ भी सामग्री प्राप्त नहीं होती। १५ वी १६ वीं शताब्दी में निर्मित पट्टावलियों में इन्हें आचार्य हरिभद्र का पट्टधर लिखा है; जबकि आचार्य हरिभद्र जिनभद्र से सौ वर्ष के पश्चात् हुए हैं। ये निवृत्तिकुल के थे। वल्लभी के जैन भण्डार में शक सं०५३१ की लिखी हुई विशेषावश्यकभाष्य की एक प्रति मिली है जिससे स्पष्ट है कि उनका सम्बन्ध बल्लभी के साथ अवश्य रहा होगा। विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है उन्होंने मथुरा में महानिशीथसूत्र का उद्धार किया था । वाचक, वाचनाचार्य, क्षमाश्रमण, आदि शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं। आचार्य जिनभद्र की नौ रचनाएँ प्राप्त होती हैं ।
१. विशेषावश्यकभाष्य-प्राकृत पद्य में २. विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति-अपूर्ण, संस्कृत गद्य ३. बृहत्संग्रहणी-प्राकृत पद्य ४. बृहत्क्षेत्रसमास-प्राकृत पद्य
विशेषणवती-प्राकृत पद्य
जीतकल्प-प्राकृत पद्य ७. जीतकल्पभाष्य-प्राकृत पद्य । ८. अनुयोगद्वारचूर्णि-प्राकृत पद्य ६. ध्यानशतक-प्राकृत पद्य (इस सम्बन्ध में एकमत नहीं है)। .
विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्र की अन्तिम रचना है। इन्होंने इस पर सोपज्ञवृत्ति लिखना भी प्रारम्भ किया था, किन्तु पूर्ण होने से पहले ही उनका आयुष्य पूर्ण हो गया जिससे वह अपूर्ण रह गयी। विज्ञजन जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का उत्तर काल विक्रम संवत् ६५० से ६६० के आसपास मानते हैं।
जिनदासगणी महत्तर-चूणि साहित्य के निर्माताओं में इनका मूर्धन्य स्थान है । इनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। नन्दीविशेषचूणि में इनके विद्यागुरु का नाम प्रद्युम्न क्षमाश्रमण आया है। उत्तराध्ययनणि में इनके सद्गुरुदेव का नाम वाणिज्य कुलीन कोटीकगणीय वज्रशाखीय गोपालगणी महत्तर आया है। विज्ञों का मानना है कि ये जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के बाद और आचार्य हरिभद्र से पहले हुए हैं, क्योंकि भाष्य की अनेक गाथाओं का उपयोग चूर्णि में हुआ है और आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्तियों में चूणियों का उपयोग किया है । इनका समय वि० सं० ६५० से ७५० के मध्य होना चाहिए । इनकी निम्न चूणियाँ मानी जाती हैं
१. निशीथविशेषचूर्णि २. नन्दीचूणि ३. अनुयोगद्वारचूर्णि ४. दशवकालिकचूणि ५. उत्तराध्ययनचूर्णि ६. आवश्यकचूर्णि ७. सूत्रकृतांगचूणि
भाषा की दृष्टि से इनकी चूणियाँ संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में हैं । किन्तु संस्कृत कम और प्राकृत अधिक है। आवश्यकचूणि की भाषा प्राकृत है। भाषा सरल और सुबोध है। इन चूर्णियों में सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक सामग्री भरी पड़ी है।"
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