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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
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२३.
२२. आचार्य नागहस्ती
६६ वर्ष २३. आचार्य रेवतिमित्र २४. आचार्य सिंहसूरि २५. आचार्य नागार्जुन २६. आचार्य भूतदिन
७६ , २८. आचार्य कालक
माथुरी युगप्रधान पट्टावलि १. आचार्य सुधर्मास्वामी
२. आचार्य जम्बूस्वामी ३. आचार्य प्रभवस्वामी
४. आचार्य शय्यंभव ५. आचार्य यशोभद्र
६. आचार्य सम्भूतिविजय ७. आचार्य भद्रबाहु
आचार्य स्थूलभद्र ६. आचार्य महागिरि
आचार्य सुहस्ती ११. आचार्य बलिस्सह
आचार्य स्वाति १३. आचार्य श्यामाचार्य
आचार्य सांडिल्य १५. आचार्य समुद्र
१६. आचार्य मंगू १७. आचार्य आर्यधर्म
१८. आचार्य भद्रगुप्त १६. आचार्य वच
२०. आचार्य रक्षित २१. आचार्य आनन्दिल
२२. आचार्य नागहस्ती आचार्य रेवतिनक्षत्र
२४. आचार्य ब्रह्मदीपकसिंह २५. आचार्य स्कन्दिलाचार्य
२६. आचार्य हिमवन्त २७. आचार्य नागार्जुन
२८. आचार्य गोविन्द २६. आचार्य भूतदिन
३०. आचार्य लौहित्य ३१. आचार्य दृष्यगणी
३२. आचार्य देवद्धिगणी (१३) आर्य इन्द्रदिन-प्रस्तुत आचार्य परम्परा में आचार्य इन्द्रदिन्न (इन्द्रदत्त) युगप्रभावक आचार्य थे। आपके लघु गुरुभ्राता प्रिय ग्रन्थ भी युगप्रभावक व्यक्ति थे। आपने हर्षपूर में होने वाले अजमेध यज्ञ का निवारण किया था और हिंसाधर्मी ब्राह्मण विज्ञों को अहिंसा धर्म का पाठ पढ़ाया था। आपने कर्नाटक में धर्म का प्रचार किया।
आर्य शान्तिश्रेणिक से उच्चानागर शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। प्रस्तुत शाखा में प्रतिभा मूर्ति आचार्य उमास्वाति हुए जिन्होंने सर्वप्रथम दर्शन-शैली से तत्त्वार्थसूत्र का निर्माण किया । आपके ही समय में कुछ आगे पीछे आर्य कालक, आर्य खपुटाचार्य, इन्द्रदेव, श्रमणसिंह, वृद्धिवादी, सिद्धसेन आदि आचार्य हुए।
(१४) आर्य कालक–आर्य कालक के नाम से चार आचार्य हुए हैं। प्रथम कालक जिनका अपर नाम श्यामाचार्य भी है और जिन्होंने प्रज्ञापना सूत्र का निर्माण किया, वे द्रव्यानुयोग के महान ज्ञाता थे। अनुश्रुति है कि शक्रेन्द्र ने एक बार भगवान सीमन्धर स्वामी से निगोद पर गम्भीर विवेचन सुना। उन्होंने यह जिज्ञासा व्यक्त की कि क्या भरत क्षेत्र में कोई इस प्रकार की व्याख्या कर सकता है। भगवान ने आर्य कालक का नाम बताया। वे आचार्य कालक के पास आये । जैसा भगवान ने कहा था वैसा ही वर्णन सुनकर अत्यन्त प्रमुदित हुए। आपका जन्म वीर सं० २८० में हुआ । वीर सं० ३०० में दीक्षा ली । ३२५ में युगप्रधानाचार्य पद पर आसीन हुए और ३७६ में उनका स्वर्गवास हुआ।
द्वितीय आचार्य कालक भी इन्हीं के सन्निकटवर्ती हैं । ये धारानगरी के निवासी थे। इनके पिता का नाम राजा वीरसिंह और माता का नाम सुरसुन्दरी था । इनकी लघु बहन का नाम सरस्वती था जो अत्यन्त रूपवती थी। दोनों ने ही गुणाकरसूरि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। साध्वी सरस्वती के रूप पर मुग्ध होकर उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने उसका अपहरण किया । आचार्य कालक को जब यह ज्ञात हुआ तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए। उन्होंने शक राजाओं से मिलकर गर्दभिल्ल का साम्राज्य नष्ट कर दिया । आचार्य कालक सिन्धु सरिता को पार कर ईरान तथा बर्मा, सुमात्रा भी गये थे । एक बार आचार्य का वर्षावास दक्षिण के प्रतिष्ठानपुर में था। वहाँ का राजा सातवाहन जैनधर्मावलम्बी था। उस राज्य में भाद्रपद शुक्ला पंचमी को इन्द्रपर्व मनाया जाता था, जिसमें राजा से लेकर रंक तक सभी अनिवार्य
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