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जैन-धर्म-परम्परा : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण [भगवान ऋषभदेव से लोंकाशाह]
-देवेन्द्र मुनि शास्त्री
ऋषभद
ऋषभदेव-जैनधर्म विश्व का एक प्राचीनतम धर्म है। प्रस्तुत अवसर्पिणीकाल में इस धर्म के आद्य संस्थापक भगवान ऋषभदेव हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में वे उपास्य के रूप में रहे हैं। उनका तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व जन-जन के आकर्षण का केन्द्र रहा है। आधुनिक इतिहास से उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि वे प्रागैतिहासिक युग में हुए। उनके पिता का नाम नाभि और माता का नाम मरुदेवा था । उनका पाणिग्रहण सुमंगला और सुनन्दा के साथ हुआ । सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी तथा अन्य अठानवें पुत्रों को जन्म दिया और सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को। कुलकर व्यवस्था का अन्त होने पर वे राजा बने, राजनीति का प्रचलन किया, खेती आदि की कला सिखाकर खाद्य-समस्या का समाधान किया; अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाएँ, और कनिष्ठ पुत्र बाहुबली को प्राणी-लक्षणों का ज्ञान कराया; और ब्राह्मी को अठारह लिपियों का तथा सुन्दरी को गणित विद्या का.परिज्ञान कराया। असि-मसि और कृषि की व्यवस्था की। वर्ण-व्यवस्था की संस्थापना की। अन्त में भरत को राज्य देकर चार हजार व्यक्तियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। जनता श्रमणचर्या के अनुसार भिक्षा देने की विधि से एक संवत्सर तक भिक्षा नहीं मिली। उसके पश्चात् उनके पौत्र श्रेयास ने इक्षुरस की भिक्षा दी जिससे इक्षु तृतीया या अपरिचित थी, अतः अक्षय तृतीया पर्व का प्रारम्भ हुआ। एक हजार वर्ष के पश्चात् उनको केवलज्ञान हुआ। संघ की संस्थापना की। उनके पुत्र भरत के नाम से भारतवर्ष का नामकरण हुआ। भरत को आदर्श महल में केवलज्ञान हआ। उनके अन्य सभी पुत्र और पुत्रियाँ भी साधना कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुई और माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन ऋषभदेव ने भी अष्टापद पर्वत पर शिवगति प्राप्त की जिससे शिवरात्रि विश्रुत हुई।
बाईस तीर्थकर-भगवान ऋषभदेव के पश्चात् अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, (पुष्पदन्त), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ--ये बाईस तीर्थकर हुए।
अरिष्टनेमि-भगवान अरिष्टनेमि और भगवान पार्श्व-इन दोनों की आधुनिक विद्वान ऐतिहासिक महापुरुष मानते हैं । अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। ऋग्वेद आदि में उनके नाम का उल्लेख मिलता है । यजुर्वेद, सामवेद, छान्दोग्योपनिषद्, महाभारत, स्कंदपुराण, प्रभासपुराण आदि में भी उनके अस्तित्व का संकेत मिलता है। मांस के लिए मारे जाने वाले प्राणियों की रक्षा हेतु उन्होंने उग्रसेन नरेश की पुत्री राजीमती के साथ विवाह करने से इनकार किया और स्वयं गृह त्यागकर श्रमण बने, केवलज्ञान प्राप्त कर रैवताचल (गिरिनार) पर मुक्त हुए। मांसाहार के विरोध में जो उन्होंने अभियान प्रारम्भ किया वह इतिहास के पृष्ठों में आज भी चमक रहा है । वासुदेव श्रीकृष्ण उनके परम भक्तों में से थे।'
पार्श्वनाथ भगवान पार्श्वनाथ वाराणसी के राजकुमार थे। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। आपका जन्म ई. पू. ८५० में पौषकृष्णा दशमी को हुआ था। आपके युग में तापस परम्परा में विविध प्रकार की विवेकशून्य क्रियाएँ प्रचलित थीं। गृहस्थावस्था में ही पंचाग्नि तप तपते हुए कमठ को अहिंसा का पावन उपदेश दिया और धुनी के लक्कड़ में से जलते हुए सर्प का उद्धार किया। श्रमण बनने के पश्चात् उग्र साधना
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