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जैनदर्शन में समतावादी समाज-रचना के आर्थिक तत्त्व
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और रस- परित्याग प्रकारान्तर से भोजन से ही सम्बन्धित है । साधु की भिक्षाचर्या के सम्बन्ध में जो नियम बनाये गये हैं वे भी किसी न किसी रूप में गृहस्थ की साधन-शुद्धि और पवित्र भावना पर ही बल देते हैं ।
(४) अर्जन का विसर्जन - उपर्युक्त विवेचन से यह नहीं समझा जाना चाहिये कि जैनधर्मावलम्बी आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं होते । इसके विपरीत ऐसे उदाहरण पर्याप्त हैं जो उनकी वैभवसम्पन्नता और श्रीमन्तता को सूचित करते हैं । उपासकदशांगसूत्र में भगवान महावीर के दस आदर्श श्रावकों का वर्णन आया है । वहाँ उल्लेख है कि आनन्द, नन्दिनीपिता और सालिहीपिता के पास १२-१२ करोड़ सोनैयों की सम्पत्ति थी । चार-चार करोड़ सोर्नया निधानरूप अर्थात् खजाने में था, चार-चार करोड़ सोनैयों का विस्तार (द्विपद, चतुष्पद, धन-धान्य आदि की सम्पत्ति ) था और चारचार करोड़ सोनैयों से व्यापार चलता था । इसके अलावा उनके पास गायों के चार-चार गोकुल थे ( एक गोकुल में दसहजार गायें होती थीं) इसी प्रकार कामदेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक के पास १०-१० करोड़ सोनेये थे और गायों के ६६ गोकुल थे। चुलनीपिता, सुरादेव, महाशतक के पास २४-२४ करोड़ सोनैये की सम्पत्ति और गायों के ८-८ गोकुल थे । सद्दाल
पुत्र
जो जाति का कुम्भकार था, उसके पास तीन करोड़ सोनॅयों की सम्पत्ति थी और दस हजार गायों का एक गोकुल था । मध्ययुग में वस्तुपाल- तेजपाल और भामाशाह जैसे श्रेष्ठि थे । आधुनिक युग में भी श्रेष्ठियों की कमी नहीं है । इससे स्पष्ट है कि महावीर गरीबी का समर्थन नहीं करते । उनका प्रहार धन के प्रति रही हुई मूर्च्छावृत्ति पर है । वे व्यक्ति को निष्क्रिय या अकर्मण्य बनने को नहीं कहते, पर उनका बल अर्जित सम्पत्ति को दूसरों में बांटने पर है। उनका स्पष्ट उद्घोष है-संविभागी तरस मोक्लो अर्थात् जो अपने प्राप्य को दूसरों में बांटता नहीं, उसकी मुक्ति नहीं होती । अर्जन के विसर्जन का यह भाव उदार और संवेदनशील व्यक्ति के हृदय में ही जागृत हो सकता है और ऐसा व्यक्ति क्रूर, हिंसक या पापाचारी नहीं हो सकता । निश्चय ही ऐसा व्यक्ति मिष्टभाषी, मितव्ययी, संयमी और सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाला होगा और इन सबके सम्मिलित प्रभाव से उसकी सम्पत्ति भी उत्तरोत्तर वृद्धिमान होगी । अर्जन का विसर्जन नियमित रूप से होता रहे और मर्यादा से अधिक सम्पत्ति संचित न हो, इसके लिए अतिथिसंविभागव्रत और दान का विधान है। भगवतीसूत्र में तुंगियानगरी के ऐसे श्रावकों का वर्णन आता है जिनके घरों के द्वार अतिथियों के लिए सदा खुले रहते थे । अतिथियों में साधुओं के अतिरिक्त जरूरतमन्द लोगों का भी समावेश है । पुण्य तत्त्व के प्रसंग में पुण्यबन्ध के नौ कारण बताए गये हैं इस दृष्टि से वे उल्लेखनीय हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं(१) भूखे को भोजन देना (अन्न पुष्य) (२) प्यासे को पानी (पेय पदार्थ) पिलाना, (पानपुण्य), (३) जरूरतमन्द को मकान आदि देना ( स्थान पुण्य), (४) पाट, बिस्तर आदि देना (शयन पुण्य), (५) वस्त्र आदि देना (वस्त्र पुण्य), (६) मन (७) वचन और (८) शरीर की शुभ प्रवृति से समाज सेवा करना (मन पुण्य, वचन पुण्य और काय पुण्य ) तथा (2) पूज्य पुरुषों और समाज सेवियों के प्रति विनम्र भाव प्रकट करते हुए उनका सम्मान सत्कार करना ( नमस्कार पुण्य ) । आवश्यकता से अधिक संचय न करना और मर्यादा से अधिक प्राप्य सम्पत्ति को जरूरतमंद लोगों में वितरित
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कर देने की भावना ही जन कल्याण के कार्य को आगे बढ़ाती है। दान या त्याग का यह रूप केवल रूढ़ि पालन नहीं है । समाज के प्रति कर्तव्य व दायित्व बोध भी है। दान का उद्देश्य समाज में ऊँच-नीच का स्तर कायम करना नहीं, बरन् जीवन रक्षा के लिये आवश्यक वस्तुओं का समवितरण करना है। धर्म शासन इस प्रवृत्ति पर जितना बल देता है उतना ही बल जनतांत्रिक समाजवादी शासन व्यवस्था भी देती है ।
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जैनदर्शन में दान का यह पक्ष केवल अर्थदान तक ही सीमित नहीं है । यहाँ अर्थदान से अधिक महत्व दिया गया है आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान और अभयदान को । उत्तम दान के लिये यह आवश्यक है कि जो दान दे रहा है वह निष्काम भावना से दे और जो दान ले रहा है, उसमें किसी प्रकार की दीन या हीन भावना पैदा न हो । दान देते समय दानदाता को मान-सम्मान की भूख नहीं होनी चाहिये । निर्लोभ और निरभिमान भाव से किया गया दान ही सच्चा दान है । दाता के मन में किसी प्रकार का ममत्व भाव न रहे, इसी दृष्टि से शास्त्रों में महिमा बतायी गई है।
गुप्तदान की
दान की होड़ में येन-केन-प्रकारेण धन बटोरने की प्रवृत्ति आत्मलक्षी व्यक्ति के लिये हितकर नहीं हो सकती । दान में मात्रा का नहीं, गुणात्मकता का महत्व है । नीति और न्याय से अर्जित सम्पदा का दान ही वास्तविक दान है । आवश्यकता से अधिक वस्तु का संचय न कर, दूसरों को दे देना लोकधर्म है, पर अपनी आवश्यक वस्तुओं में से कमी करके, दूसरों के लिये देना आत्मधर्म है । इस दूसरे रूप में ही व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों का विशेष नियमन कर पाता है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनदर्शन में जिन आर्थिक तत्वों का संगुम्फन है, उनकी आज के सन्दर्भ बड़ी प्रासंगिकता है और धर्म तथा अर्थ की चेतना परस्पर विरोधी न होकर एक दूसरे की पूरक है।
बहल
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