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साथी नहीं है।
जैन रामकथा की पौराणिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि
४. अन्यत्व - शरीर, वैभव, स्वजन-परिजन सब दूसरे हैं । धर्म के अतिरिक्त जीव का कोई अन्य
५. संसार — जीव चार गतियों में घूमता हुआ अपने पापों का फल भोगता रहता है ।
६. त्रिलोक-जीव त्रिलोक में विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते हुए पापों का फल भोगता रहता है ।
७. अशुचि यह अनुप्रेक्षा देह की घिनौनी स्थिति की ओर संकेत करती है।
८. आलय -- अनेक प्रकार के कर्मों से जीव आच्छन्न रहता है ।
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६. संवर- यह अनुप्रेक्षा कर्म निरोध की ओर संकेत करती है ।
१०. निर्जरा – इस अनुप्रेक्षा के अनुसार जीव उपवास, व्रत, तप आदि द्वारा कर्मफल का नाश करता है । ११. धर्म - इस अनुप्रेक्षा में जीवदया, मृदुता, चित्त की सरलता, लाघव, तपश्चरण, संयम, ब्रह्मचर्यं सत्य आदि
धर्मं आते हैं ।
१२. बोधि - इस अनुप्रेक्षा के अनुसार, जीव को यह दिन-रात सोचना चाहिए कि भव भव में जिनेन्द्र मेरे स्वामी हों, भव भव में मुझे सम्यक्ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं निज गुण-सम्पत्ति की प्राप्ति हो और कर्म मल का नाश हो । (e) रामकथा का उपसंहार
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राम : दीक्षा-तपस्या- निर्वाण
अन्त में रामकथा के नायक के जीवन के अन्तिम चरण पर प्रकाश डालना समीचीन जान पड़ता है । उसके आधार पर पाठक राम जैसे मोक्षगामी व्यक्ति के जीवन के साधनात्मक पक्ष के बारे में अनुमान कर सकेंगे ।
लक्ष्मण की मृत्यु के पश्चात् राम मोहान्ध होकर उसे जीवित ही समझकर उसके शव को सुरक्षित रख रहे ये परन्तु दो देवों द्वारा उन्हें उद्घोष दिया गया, तो उनका मोह दूर हुआ और उनकी आंखें खुल गई। उन्हें अपनी
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मूर्खता पर ग्लानि अनुभव हुई। जब उनको बोध प्राप्त हो गया, तो देवताओं ने अपनी ऋद्धियों का प्रदर्शन उनके सम्मुख कर दिया । फिर लक्ष्मण का दाह संस्कार करने के पश्चात् उन्होंने समस्त परिग्रह का त्याग किया और महाव्रतों को निष्ठापूर्वक स्वीकार किया। उन्होंने बारह प्रकार के कठोर तप किए, परीषद् सहन किए और समितियों का पालन किया वे पहाड़ की चोटी पर ध्यान-मग्न होकर बैठ गए। एक दिन रात में उन्हें अवधिज्ञान की उत्पत्ति हुई। धीरे-धीरे उन्होंने संसार भ्रमण के मूल कारण कर्मों के नाश के लिए तत्पर हो गए । षष्ठ उपवास करने के बाद जब वे धनकनक देश में पहुँचे, तो वहाँ के राजा ने उनको पारणा कराया । फलस्वरूप देवों ने दुन्दुमियाँ बजाते हुए उनका साधुवाद किया, अपार धन की वर्षा कर दी । तदनन्तर महामुनि राम ने धरती पर विहार किया और घोर तपश्चरण किया । फिर कोटिशिला पर बैठकर आत्म ध्यान में लीन हो गए । अवधिज्ञान से उनकी इस स्थिति को जान कर सीता के जीव रूपी इन्द्र ने उन्हें विचलित करने का अपार प्रयत्न किया, फिर भी मुनिवर राम का मन अडिग रहा । अन्त में माघ शुक्ला द्वादशी के दिन उन्होंने चार घातिकर्मों का नाश करके परम उज्ज्वल केवलज्ञान प्राप्त किया, तो त्रिलोक-त्रिकाल उन्हें हस्तामलकवत् दिखाई देने लगे। तब इन्द्रादि देवों ने वहाँ आकर उनकी वन्दना की । तदनन्तर इन्द्र ने लवण आदि की स्थिति के बारे में जिज्ञासा प्रकट की, तो केवली मुनीन्द्र राम ने उनके स्थित्यन्तरों का वर्णन किया । कितने ही दिनों के पश्चात् राम ने मोक्ष प्राप्त किया ।
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उपसंहार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैन रामकथा के विवेकवान पात्रों के आचार-विचार जैन दर्शन से अनुप्राणित हैं । जो इसका ध्यान नहीं रखते, उनका अधःपात हो जाता है । वस्तुतः दर्शन जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है, वह अमूर्त है, जबकि साधनापक्ष व्यावहारिक होता है। जैन रामकथा के अनुसार राम जैसे आदर्श पात्र व्यवहार-पक्ष का ध्यान रखते हुए जीवन के चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते जाते हैं।
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कहा जा चुका है रामकथा के विमलसूरि, रविषेण, स्वयम्भु आदि रचनाकार धार्मिक दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रभावित है, न्यूनाधिक रूप से वे प्रचारक के स्तर पर उतर आते हैं । अतः अवसर मिलते ही वे दर्शन और साधना सम्बन्धी बातों की या तो चर्चा करते हैं या उन्हें व्यवहृत होते दिखाते हैं । विमलसूरि और रविषेण पहले आचार्य हैं, अत: उनकी कृतियों में इस प्रकार का विवेचन अधिक मिलता है, जबकि स्वयम्भु कवि पहले हैं, अतः वे सिर्फ उपदेशक के रूप में पाठकों के सामने नहीं आते । संक्षेप में जैन रचनाकारों ने जैन दार्शनिक दृष्टिकोण को सामने रखकर रामकथा का वर्णन किया है ।
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