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जैन रामकथा को पौराणिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि
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पारिवारिक, सामाजिक आदर्शों को प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत करती है। व्यक्ति, परिवार तथा समाज के प्रत्येक पक्ष को उसने स्पर्श किया है, जिससे उसके जीवन का वह अभिन्न अंग बन चुकी है।
सदियों पहले, रामकथा गंगोत्री से उत्पन्न गंगा की धारा सदृश थी; फिर गंगा-धारा की भांति, रामकथाधारा विकसित होती गई है और अब उसे आज का यह विश्वव्यापी रूप प्राप्त हो गया है। कहना न होगा कि यह विकास उसके प्रत्येक अंग का-कथावस्तु, चरित्र, उद्देश्य, देश-काल-स्थिति-समस्त पहलुओं का हो गया है।
(२) राम का गगनभेदी व्यक्तित्व और कृतित्व रामकथा के विश्वव्यापकत्व का रहस्य नायक राम के गगनभेदी व्यक्तित्व में निहित है। प्रागैतिहासिक काल में राम का व्यक्तित्व मूलतः ही असाधारण रूप से उच्चकोटि का रहा होगा; तभी तो काल-जयी बनते हुए, ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी तक वह गगनभेदी बन सका था, अथवा बनाया जा सका था। अवश्य ही उस व्यक्तित्व में असाधारण विकासशीलता रही होगी। विकास को प्राप्त होते हुए उसका जो रूप वाल्मीकि के हाथ लगा, वह उनके हाथों पड़कर रामायण में अंकित होने के पश्चात् “नरत्व” से “नारायणत्व" की ओर विद्य त-गति से अग्रसर होता गया । वाल्मीकि के राम
नियतात्मा महावीर्यो श्रुतिमान् धृतिमान् वशी।
बुद्धिमान, नीतिमान् वाग्मी श्रीमान् शत्रु निवर्हणः ॥ थे। वे परम प्रतापी, धर्मज्ञ, सत्यसन्ध, प्रजाहितरत थे। वे समुद्र-सदृश गम्भीर और हिमालय-सदृश धीर थे। उनके व्यक्तित्व की और कितनी विशेषताओं को गिनाएँ ?
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नायक राम को प्रतिनायक रावण का सामना करना था। यह प्रतिनायक नायक के लिए तुल्यबल था। कुछ पहलुओं में वह राम से अधिक शक्तिशाली था। राम का व्यक्तित्व तभी तो निखर उठा। राम के साथ न्याय था, धर्म था, नैतिकता से परिपूर्ण सदाचरण था, तो रावण के पक्ष में पाशविकता थी, अन्याय था, परधन-परदारासक्ति थी। अतः राम की विजय "रामत्व" की विजय थी।
राम के व्यक्तित्व के अनुरूप ही उनका कृतित्व था। दुष्कृत्यों का विनाश करते हुए, साधु-जनों की रक्षा करके उन्होंने सद्धर्म को प्रतिष्ठित किया। उनका राज्य "रामराज्य" था। भले ही उसे कोई स्वप्न-लोक माने, यूटोपिया कहे, फिर भी वह हर तरह से काम्य रहा है, अभीष्ट रहा है, आदर्श रहा है।
(३) कथा-साहित्य : धर्म-संस्कार का माध्यम धर्म के प्रचार का, जन-मानस पर संस्कार उत्पन्न करने का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है: कथा-साहित्य । प्रारम्भ में तो उसका प्रयोग अनजाने में ही हुआ होगा। परन्तु उसकी उपयोगिता और लोकप्रियता को देखकर परवर्ती काल में आचार्यों, नेताओं, गुरु-जनों तथा कविजनों ने उसका प्रयोग सहेतुक किया होगा। जन-साधारण के सम्मुख ये रचयिता धर्म, दर्शन, आदर्श आदि को कथा के माध्यम से प्रस्तुप्त करने लगे। फिर प्राचीन युग तो विशेष रूप में विभूतिपूजन का युग था। इसलिए हितोपदेश देने के लिए जैसे आचार्यों ने कल्पित कथाओं का आश्रय ग्रहण किया, वैसे ही इहलोक के महापुरुषों के आख्यान भी माध्यम के रूप में उनके द्वारा स्वीकार किए गए। उन कथाओं में अनेक तत्त्व जोड़ दिए गए। उससे इन कथाओं का तथा नायक आदि के चरित्र का विकास होता गया । उनमें दार्शनिक, साधनात्मक तत्त्वों का भी समावेश किया गया। उनकी लोकप्रियता देखकर उस कथा-साहित्यरूपी सामाजिक सम्पदा को विभिन्नधर्मी या सम्प्रदायों के आचार्य उस पर अपना-अपना अधिकार जतलाने लगे । लोकप्रिय नायक या लोक-नायक को वे अपने-अपने सम्प्रदाय का प्रणेता या अनुयायी बताने लगे। इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप राम, कृष्ण आदि वैदिक परम्परा में परब्रह्म स्वरूप माने गए, तो जैनों ने उन्हें जैनमतावलम्बी "शलाका पुरुष" के रूप में चित्रित किया । नारद जैसे ऋषि पर भी ब्राह्मण, बौद्ध और जैन तीनों सम्प्रदाय अपना अधिकार बताते हुए, उसे अपने-अपने सम्प्रदाय का प्रचारक मानते हैं इन बातों को देखकर भदन्त आनन्द कौशल्यायन की यह उक्ति समीचीन जान पड़ती है-"हमारा अनुमान है कि किसी अंश में अबौद्ध और बौद्ध साहित्य, दोनों ही, एक ही परम्परा के ऋणी हैं। प्राचीनकाल का साहित्य आज की तरह स्पष्ट रूप से बौद्ध और अबौद्ध विभाग में विभक्त नहीं था। उस समय एक ही कथा ने बौद्धों के हाथों बौद्ध रूप और अबौद्ध कलाकारों के हाथों पड़कर अबौद्ध रूप धारण किया होगा।" भदन्त आनन्द कौशल्यायन ने यह रामकथा
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