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श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
आसन प्राणायाम समारो॥ प्रत्याहार धारना कीजै।
ध्यान समाधि महारस पीज।।२२ उसी प्रकार अनहद नाद के विषय में लिखते हैं
अनहद सबद सदा सुन रे । आप ही जाने और न जान; कान बिना सुनिये धुन रे॥ अमर गुंज सम होत निरन्तर,
ता अन्तर गति चितवन रे ॥२८ इसीलिए द्यानतरायजी ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है। जिन साधकों के श्वासोच्छ्वास के साथ सदैव ही 'सोहं सोह' की ध्वनि होती रहती है और जो सोहं के अर्थ को समझकर, अजपा जाप की साधना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं
सोहं सोहं होत नित, सांस उसास मझार । ताको अरथ विचारिय, तीन लोक में सार ।। तीन लोक में सार, धार सिव खेत निवासी। अष्ट कर्म सौं रहित, सहित गुण अष्ट विलासी ॥ जैसो तसो आप थाप, निहचै तजि सोहं ।
अजपा जाप समार, सार सुख सोहं सोहं ॥२१ आनन्दघन का भी यही मत है कि जो साधक आशाओं को मारकर अपने अन्तः में अजपा जाप को जगाते हैं वे चेतन मूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। इसीलिए सन्त आनन्दघन भी सोहं को संसार का सार मानते हैं
चेतन ऐसा ज्ञान विचारो।
सोह-सोहं सोहं सोहं सोहं अणु नबी या सारो।" इस अजपा को अनहद ध्वनि उत्पन्न होने पर आनन्द के मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवात्मा सौभाग्यवती नारी के सदृश भावविभोर हो उठती है
___ "उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारेवारी ।
___ झड़ी सदा आनन्दघन बरखत, बन मोर एकनतारी ॥३२ सहज योग साधनाजन्य रहस्यभावना में साधक आध्यात्मिक क्षेत्र को अधिकाधिक विशुद्ध करता है तथा ब्रह्म (परमात्मा) और आत्मा के सम्मिलन अथवा एकात्मकता की अनुभूति तथा तज्जन्य अनिर्वचनीय परम सुख का अनुभव करता है। इन्हीं साधनात्मक अभिव्यक्तियों के चित्रण में वह जब कभी अपनी साधना के सिद्धान्तों अथवा पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग करता है। इस शैली को डॉ० त्रिगुणायत ने पारिभाषिक शब्दमूलक रहस्यवाद और आध्यात्मिक रहस्यवाद कहा है ।33 इस तरह मध्यकालीन जैन साधकों की रहस्यसाधना अध्यात्ममूलक साधनात्मक रहस्यभावना की सृष्टि करती है।
भावनात्मक रहस्यभावना में साधक की आत्मा के ऊपर से जब अष्टकर्मों का आवरण हट जाता है और संसार के मायाजाल से उसकी आत्मा मुक्त होकर विशुद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है तो उसकी भावदशा भंग हो जाती है । फलतः साधक विरह-विधुर हो तड़प उठता है । यह आध्यात्मिक विरह एक ओर तो साधक को सत्य की खोज अर्थात् परमपद की प्राप्ति की ओर प्रेरित करता है और दूसरी ओर उसे साधना में संलग्न रखता है। साधक की अन्तरात्मा विशुद्धतम होकर अपने में ही परमात्मा का रूप देखती है तब वह प्रेम और श्रद्धा की अतिरेकता के कारण उससे अपना घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने लगती है। यही कारण है कि कभी साधक उसे पति के रूप में देखता है और कभी पत्नी के रूप में, क्योंकि प्रेम की चरम परिणति दाम्पत्य रति में देखी जाती है । अतः रहस्यभावना की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और प्रिया के आश्रय में होती है।
आध्यात्मिक साधना करने वाले जैन और जैनेतर सन्तों एवं कवियों ने इसी दाम्पत्यमूलक रतिभाव का
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