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हिन्बी जैन कवियों की छन्द-योजना
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लगता है। इन अवयवों में प्रस्तुत वह गति जब स्पन्दनयुक्त हो उठती है, यह स्पन्दनयुक्त स्थिति 'पश्यन्ति' है। यही स्पन्दन मुख से निकल कर कान से टकरा कर शब्द अथवा 'बैखरी' रूप ग्रहण कर लेते हैं।
सामान्यतः ही देखा जाय तो विदित होगा कि एक अभिव्यक्त शब्द में एक साथ कई तत्त्व रहते हैं। उसमें एक तो अक्षर, वर्ण या शब्द की ध्वनि रहती है। शब्द का ठोस तत्त्व, यह किसी भी उच्चरित ध्वनि में अभिव्यक्त होने वाली अनुभूति का बीज तत्त्व होता है, इसी में अर्थ-शक्ति रहती है । इस मूल के साथ एक पुट रहता है रागतत्त्व का, प्रत्येक ध्वनि में राग या म्यूजीकल एलीमेन्ट विद्यमान है, क्योंकि वाणी केवल बिन्दु ही नहीं, नाद भी होती है। प्रत्येक उच्चरित अक्षर ध्वनि के साथ रागतत्त्व सहजरूपेण लिपटा रहता है या कुछ और ठीक-ठीक कहें तो भिदा रहता है। क जब क् होता है तब बिन्दु है क होने पर नाद या रागयुक्त या स्वर युक्त हो जाता है : यह सभी जानते हैं कि बिना स्वर से योग के व्यंजनों का उच्चारण हो ही नहीं सकता । ये स्वर ही प्रत्येक अक्षर में मात्रा का काम देते हैं। मात्रा बारहखड़ी की मात्रा का परिणाम है जो लघु-गुरु के स्थूल भावों द्वारा प्रकट की जाती है, यों भाषा-तत्त्वविद् बता सकते हैं कि लघु से पूर्व भी लघुतर-लघुतम की स्थिति होती है, लघु-गुरु के बीच में भी और कितनी ही मात्रायें हैं और गुरु के उपरान्त गुरुतर, गुरुतम और उससे प्लुत आदि की । वस्तुतः एक मात्रा या व्यंजन का उल्लेख एक ग्राम होता है और विविध उच्चारणकर्ताओं की अपनी स्थिति के अनुरूप वे स्थान को अभ्यासत: टिकने के लिये ग्रहण कर लेते हैं, वहीं उनके अक्षर या वर्ण का मात्रायुक्त उच्चारण माना जाता है । क ध्वनि का पूर्ण ग्राम क क क क क क मान लीजिये।
अब इसमें हमने ३ को बोलने का अभ्यास डाल लिया है तो हम इस ३ को अपना क मानेंगे। इन छहों उच्चारणों में मात्राभेद अनिवार्य है। उसी से क मूल का ग्राम बनता है। इस मात्रा में राग-तत्त्व के कारण ही इतने उच्चारण बनते हैं। यही राग-बिन्दु या नाद-विशेष विस्तार पाकर मात्रा संयोगों से छन्द का रूप ग्रहण करता है।
छन्द व्यवस्थित ध्वनि है । मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था एवं गणना जिस रूप में व्यवस्थित होती है उसे छन्द कहा जाता है तथा संगीत सम्बन्धी लय और गति वाली धारा प्रवाहित होती है। आचार्य विश्वनाथ द्वारा प्रतिपादित है कि छन्दोबद्ध पदं पद्य : अर्थात् छन्दोबद्ध पद को ही पद्य कहा जाता है। छन्द से काव्य में लयता, नियमितता तथा अर्थपूर्णता प्राय: अभिव्यंजित हुआ करती है।
काव्य और छन्द का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है । वे परस्पर में साथ-साथ हैं, उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। छन्दयति आह्लादयति इति छन्दः अर्थात् जो मनुष्यों को प्रसन्न करता है या आनन्द देता है वह छन्द है। छन्द में व्याप्त लय और ताल के कारण काव्य में उत्पन्न मधुरता से उसमें प्राणिमात्र को आकर्षित तथा सम्मोहित करने की अमोघ शक्ति का उन्नयन होता है । काव्यशास्त्र के सुधी विचारक डा० भगीरथ मिश्र ने कहा है कि कविता की मुख्य विशेषता रमणीयता है, इस विशेषता की रक्षा का सहायक तत्त्व छन्द ही है जिसके अभाव में कविता को नीरस गद्य बनने में देर नहीं लगती अतः छन्द का कविता में इस दृष्टि से महत्व रहा है।
छन्दों को प्रकार की दृष्टि से मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । यथा१. मात्रिक २. वणिक
मात्रिक छन्द मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति से उत्पन्न होते हैं, इसका कारण है कि मात्रिक छन्दों की मात्रा विषयक तथ्य का आधार मूलतः ताल है और ताल नृत्य के साथ प्रसूत तन्त्र व्यवस्था है जो गीत में टेक कहलाती है।
हिन्दी का छन्दविज्ञान मूलतः संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के छन्दविज्ञान पर आधारित है। छंद का गण विभाजन जिसका सम्बन्ध वर्णवृत्तों से है । वर्णात्मक छन्दों का मूल आधार संस्कृत काव्यधारा है। इस प्रकार मात्रिक तथा वणिक छन्दों का व्यवहार काव्य में नैत्यिक है और नाना प्रसंगों पर आधृत विविध रसों का निरुपण विभिन्न छन्दों के माध्यम से समर्थ किन्तु रससिद्ध कवियों द्वारा सफलतापूर्वक होता रहा है।
इस प्रकार यह सार संक्षेप में कहा जा सकता है कि छन्द अपनी नाद-प्रियता के लिए विख्यात है। भावाभिव्यक्ति को सरस तथा सफल बनाने के लिये भाषा का वैज्ञानिक-विधान-छन्द वस्तुत: नाद सौन्दर्य को उच्च, नम्र समतल, विस्तृत और सरस बनाने में समर्थ होता है ।
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