________________
श्री नेमिचन्द्रजी महाराज
६०७
.
+
++
+
+
+
+
+
+++
+
+++
++
+++
+++++
+++++
+
+++++++
+
+
+++++
++
+
+
++
+
+
+
+
+++
+
+
+++
एक बार आपश्री का चातुर्मास निंबाहेड़ा (मेवाड़) में था । वहाँ पर साहडों की छह मंजिल की एक भव्य बिल्डिग थी । उस हवेली में कोई भी नहीं रहता था। महाराजश्री ने लोगों से पूछा-यह हवेली खाली क्यों पड़ी है ? इसमें लोग क्यों नहीं रहते हैं जबकि गांव में यह सबसे बढ़िया हवेली है ? लोगों ने भय से कांपते हुए कहा-महाराज श्री ! इस हवेली में भूत का निवास है जो किसी को भी शांति से रहने नहीं देता। महाराजश्री ने कहा- यह स्थान बहुत ही साताकारी है । हम इसी स्थान पर वर्षावास करेंगे। लोगों ने महाराजश्री को भयभीत करने के लिए अनेक बातें कहीं, किन्तु महाराजश्री ने उनकी बातों पर ध्यान न देकर वहीं चातुर्मास किया। चार माह तक किसी को कुछ भी नहीं हुआ । आध्यात्मिक साधना से भूत का भय मिट गया ।
इसी तरह कम्बोल गांव में सेठ मनरूपजी लक्ष्मीलालजी सोलंकी का मकान भयप्रद माना जाता था। वहाँ पर भी चातुर्मास कर उस स्थान को भयमुक्त कर दिया ।
वि. सं. १९५६ में नेमीचन्द जी महाराज तिरपाल पधारे और आपश्री के उपदेश से श्री प्यारचन्दजी और भैरूलाल जी दोनों भ्राताओं ने भागवती दीक्षा ग्रहण की और माता तीजबाई ने तथा सोहनकुवरजी ने भी महासती रामकुवंरजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण भी। महासती सोहनकुवर जी महाराज बहुत ही भाग्यशाली, प्रतिभा सम्पन्न चारित्रनिष्ठा सती थीं।
आपश्री की प्रवचन शैली अत्यधिक चित्ताकर्षक थी। आगम के गहन रहस्यों को जब लोक भाषा में प्रस्तुत करते थे तब जनता झूम उठती थी । आपकी मेघ गम्भीर गर्जना को सुनकर श्रोतागण चकित हो जाते थे। रात्रि के प्रवचन की आवाज शान्त वातावरण में दो मील से अधिक दूर तक पहुँचती थी। और जब श्रीकृष्ण के पवित्र चरित्र का वर्णन करते उस समय का दृश्य अपूर्व होता था।
कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज श्रेष्ठ कवि थे । उनका उदय हमारे साहित्याकाश में शारदीय चन्द्रमा की तरह हुआ । उन्होंने अपने निर्मल व्यक्तित्व और कृतित्व की शारदीय स्निग्ध ज्योत्स्ना से साहित्य संसार को आलोकित किया तथा दिदिगन्त में शुभ्र शीतल प्रभाव को विकीर्ण करते रहे। वे एक ऐसे विरले रस-सिद्ध कवियों में से थे जिन्होंने एक ही साथ अज्ञ और विज्ञ, साक्षर-निरक्षर सभी को समान रूप से प्रभावित किया। उनकी रचनाओं में जहाँ पर आत्म-जागरण की स्वर लहरी झनझना रही है, वहाँ पर मानवता का नाद भी मुखरित है। जन-जन के मन में अध्यात्मवाद के नाम पर निराशा का संचार करना कवि को इष्ट नहीं है, किन्तु वह आशा और उल्लास से कर्मरिपु को परास्त करने की प्रबल प्रेरणा देता है । पराजितों को विजय के लिए उत्प्रेरित करता है।
___ मुनिश्री की उपलब्ध सभी रचनाओं का संकलन 'नेमवाणी' के रूप में मैंने किया है । नेमवाणी का पारायण करते समय पाठक को ऐसा अनुभव होता है कि वह एक ऐसे विद्य त् ज्योतित उच्च अट्टालिका के बन्द कमरे में बैठा हुआ है, दम घुट रहा है, कि सहसा उसका द्वार खुल गया है और पुष्पोद्यान का शीतल मन्द समीर का झोंका उसमें आ रहा है, जिससे उसका दिल व दिमाग तरो-ताजा बन रहा है। कभी उसे गुलाब की महक का अनुभव होता है तो कभी चम्पा की सुगन्ध का। कभी केतकी केवड़े की सौरभ का परिज्ञान होता है तो कभी जाई जुही की मादक गन्ध का।
प्रस्तुत कृति का निर्माण काल, संवत १९४० से १६७५ के मध्य का है। उस युग में निर्मित रचनाओं के साथ आपके पद्यों की तुलना की जाय तो ज्ञात होगा कि आपके पद्यों में नवीनता है, मंजुलता है और साथ ही नया शब्द-विन्यास भो । मुख्यत: राजस्थानी भाषा का प्रयोग करने पर भी यत्र-तत्र विशुद्ध हिन्दी व उर्दू शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। सन्त कवि होने के नाते भाषा के गज से कविता को नापने की अपेक्षा भाव से नापना अधिक उपयुक्त है।
नेमवाणी की रचनाएँ दो खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में विविध विषयों पर रचित पद हैं, तो द्वितीय खण्ड में चरित्र है। प्रथम खण्ड में जो गीतिकाएं गई हैं उनमें कितनी ही गीतिकाएँ स्तुतिपरक हैं। कवि का भावुक भक्त हृदय प्रभु के गुणों का उत्कीर्तन करता हुआ अघाता नहीं है । वह स्वयं तो झूम-झूम कर प्रभु के गुणों को गा ही रहा है साथ ही अन्य भक्तों को प्रेरणा दे रहा है कि तुम भी प्रभु के गुणों को गाओ।
"नव पद को भवियण ध्यान धरो ।
यो पनरिया यंत्र तो शुद्ध भरो....." कवि सन्त हैं, संसार की मोहमाया में भूले-भटके प्राणियों का पथ-प्रदर्शन करना उनका कार्य है । वह
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org