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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
१६वीं शताब्दी के चतुर्थ दशक में जर्मनी में प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ हो गया था। होएफर की 'डे प्राकृत डिआलेक्टो लिब्रिदुओ (१८३६ ई०) तथा लास्सन की 'इन्स्टीट्यूत्सीओनेस लिंगुआए प्राकृतिकाएं इस समय की प्रमुख रचनाएँ हैं । पांचवें दशक में प्राकृत ग्रन्थों का जर्मन में अनुवाद भी होने लगा था। ओ बोलिक ने १८४८ ई. में हेमचन्द्र के 'अभिधान चिन्तामणि' का जर्मन संस्करण तैयार कर दिया था। स्पीगल (१९४६ ई०) ने 'म्युशनर गेलेर्ने आन्साइगन' में प्राकृत भाषा का परिचय दिया है।
इस समय तुलनात्मक दृष्टि से भी प्राकृत भाषा का महत्व बढ़ गया था। अत: अन्य भाषाओं के साथ प्राकृत का अध्ययन विदेशी विद्वान् करने लगे थे। हा० अर्नेस्ट ट्रम्प (१८६१-६२) ने इस प्रकार का अध्ययन प्रस्तुत किया, जो 'प्रेमर आव द सिन्धी लेंग्वेज कम्पेयर्ड विद द संस्कृत, प्राकृत एण्ड द काग्नेट इंडियन वर्नाक्युलर्स' नाम से १८७२ ई. में प्रकाशित हुआ । १८६६ ई० में फ्रेडरिक हेग ने अपने शोध-प्रबन्ध 'वर्गलचुंग डेस प्राकृत डण्ड डेर रोमानिश्चियन प्राखन' में प्राकृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन किया है।
१९वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में प्राकृत भाषा के व्याकरण का अध्ययन गतिशील हो गया था । डा. जे० एच० बूलर ने १८७४ ई. में 'द देशी शब्द संग्रह आफ हेमचन्द्र' एवं 'आन ए प्राकृत ग्लासरी इनटायटिल्ड पाइयलच्छी' ये दो महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित किये। तथा १८८६ ई० में आपकी ई० यूवर डास लेबन डेस जैन मोएन्दोस, हेमचन्द्रा' नामक पुस्तक विएना से प्रकाशित हुई । ई० बी० कावेल ने संस्कृत नाटकों की प्राकृत का अध्ययन प्रस्तुत किया जो सन् १८७५ ई. में लन्दन से 'ए शार्ट इंट्रोडक्शन टु द आर्डनरी प्राकृत आव द संस्कृत ड्रामाज विद ए लिस्ट आव कामन इरेगुलर प्राकृत वईस' के नाम से प्रकाशित हुआ । इस सम्बन्ध में ई० म्यूलर की 'वाइवेगे त्सूर ग्रामाटीक डेस जैन प्राकृत' (बलिन, १८७५ ई०) नामक रचना भी प्राकृत भाषा पर प्रकाश डालती है। सम्भवतः प्राकृत व्याकरण के मूलग्रन्थ का अंग्रेजी संस्करण सर्वप्रथम डा० रूडोल्फ हार्नल ने किया । उनका यह ग्रन्थ 'द प्राकृत लक्षणम् आफ हेमचन्द्राज प्रेमर आफ द एन्शियेंट प्राकृत' १८८० ई० में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। प्राकृत भाषा के पाणिनि : पिशल :
पाश्चात्य विद्वानों में जर्मन विद्वान् रिचर्ड पिशल (R.Pischel) ने सर्वप्रथम प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक एवं व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत किया है । यद्यपि उनके पूर्व हार्नल, लास्सन, होयेफर, वेबर आदि ने प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु इस अध्ययन को पूर्णता पिशल ने ही प्रदान की है।
रिचर्ड पिशल ने आचार्य हेमचन्द्रकृत 'हेमन्दानुशासन' प्राकृत व्याकरण का व्यवस्थित रीति से प्रथम बार सम्पादन किया, जो सन् १८७७ ई० में प्रकाशित हुआ। प्राकृत भाषा के अध्ययन में पिशल ने अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किया । प्राकृत भाषा के व्याकरण की प्रकाशित एवं अप्रकाशित अनेक कृतियों के अनुशीलन के आधार पर उन्होंने प्राकृत भाषाओं का व्याकरण 'मेमेटिक डेर प्राकृत प्रावन' नाम से जर्मन में लिखा, जो १९०० ई० में जर्मनी के स्तास्बुर्ग नगर से प्रकाशित हुआ। इसके अब अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं।
प्राकृत भाषा के इस महान् ग्रन्थ में पिशल ने न केवल प्राकृत भाषा के व्याकरण को व्यवस्थित रूप दिया है, अपितु प्राकृत भाषा की उत्पत्ति आदि पर भी विचार किया है। अपने पूर्ववर्ती पाश्चात्य विद्वानों के मतों का निरसन करते हुए पिशल ने पहली बार यह मत प्रतिपादित किया कि प्राकृत भाषा संस्कृत से उत्पन्न न होकर स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई है। वैदिक भाषा के साथ प्राकृत का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर उन्होंने भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन की नई दिशा प्रदान की है । विभिन्न प्राकृतों का अध्ययन
डा. पिशल के बाद बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पाश्चात्य विद्वानों ने प्राकृत भाषा के विभिन्न रूपों का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया था। स्वतन्त्र ग्रन्थों के साथ-साथ प्राकृत भाषा सम्बन्धी लेख भी शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। इस समय के विद्वानों में जार्ज ग्रियर्सन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। सामान्य भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में उनका जो योगदान है, उतना ही प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के अध्ययन के क्षेत्र में भी।
सन् १९०६ में ग्रियर्सन ने पैशाची प्राकृत के सम्बन्ध में 'द पैशाची लेंग्वेज आफ नार्थ-वेस्टर्न इण्डिया' नाम से एक निबन्ध लिखा, जो लन्दन से छपा था। १९६६ ई० में दिल्ली से इसका दूसरा संस्करण निकला है। पैशाची प्राकृत की उत्पत्ति एवं उसका अन्य भाषाओं के साथ क्या सम्बन्ध है, इस विषय पर आपने विशेष अध्ययन कर १९१२
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