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जैन आगमों का व्याख्या साहित्य
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आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने निम्न आगमों पर नियुक्तियाँ लिखी हैंआवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, दशाश्रु तस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार।
दूसरे नियुक्तिकार गोविन्दाचार्य जी हैं। लेकिन उनकी कृतियाँ उपलब्ध नहीं हैं। आचार्य भद्रबाहु ने जैनपरम्परागत अनेक महत्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों को स्पष्ट व्याख्या अपनी आगमिक नियुक्तियों में की है, जिनका आधार लेकर उत्तरवर्ती भाष्यकारों ने अपनी-अपनी कृतियों का निर्माण किया । इसीलिए जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य भद्रबाहु का एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है।
भाष्यकार-नियुक्तियों की वर्णनपद्धति गूढ़ एवं अति संक्षिप्त है। उनमें पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या है । अतः उन गूढार्थों को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए उत्तरवर्ती काल में आचार्यों ने जो व्याख्यायें लिखीं वे भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हुई। नियुक्तियों की ही तरह इनकी भाषा प्राकृत एवं शैली पद्यात्मक है।
प्रत्येक आगम पर जैसे नियुक्तियां नहीं लिखी गईं वैसे ही प्रत्येक नियुक्ति पर भाष्य भी नहीं लिखे गये हैं । जिन आगमों पर भाष्य लिखे गये हैं उनके नाम हैं:-आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ । आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं-(१) मूलभाष्य, (२) भाष्य, (३) विशेषावश्यकभाष्य । प्रथम दो भाष्य संक्षिप्त हैं और उनकी अनेक गाथायें विशेषावश्यकभाष्य में सम्मिलित कर ली गई हैं। उत्तराध्ययनमाष्य बहुत छोटा है। कुल ४५ गाथायें हैं । बहतकल्प पर बृहत् और लघु यह दो भाष्य हैं । व्यवहार और निशीथ भाष्य में लगभग क्रमशः ४६२ और ६५०० गाथायें हैं।
उपलब्ध भाष्यों के आधार से आचार्य जिनभद्रगणी और संघदासगणी इन दो भाष्यकारों के नाम का पता चलता है।
___अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थों के कारण यद्यपि आचार्य जिनमद्रगणी का जैन-परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन उनके जीवन की घटनाओं के सम्बन्ध में कोई सामग्री नहीं मिलती है। आचार्य जिनमद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की प्रति शक संवत् ५३१ में लिखी गई और वह वल्लभी के एक जैनमन्दिर में समर्पित की गई। इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि उनका वल्लभी से कोई सम्बन्ध अवश्य रहा है । डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने अकोटा गांव से प्राप्त दो प्रतिमाओं के लेखों के आधार से यह संकेत दिया है कि आचार्य जिनभद्र का समय ई० सन् ५५० से ६०० के बीच होना चाहिये। मुनि श्री जिनविजयजी ने जैसलमेर स्थित विशेषावश्यकभाष्य की प्रति के आधार पर आचार्य जिनभद्र का समय विक्रम सं० ६६६ के आसपास माना है लेकिन यह समय भी विवादास्पद है।
आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य (प्राकृत पद्य), विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञवृत्ति (अपूर्ण संस्कृत गद्य) बृहत्संग्रहणी (प्राकृत पद्य), बृहत्क्षेत्रसमास (प्राकृत पद्य), विशेषणवती (प्राकृत पद्य), जीतकल्प (प्राकृत पद्य), जीतकल्प भाष्य (प्राकृत पद्य), अनुयोगद्वारणि (प्राकृत पद्य), ध्यानशतक (प्राकृत पद्य)। ध्यानशतक का कर्तृत्व सन्दिग्ध है। आदि ग्रन्थों की रचना की।
संघदासगणी भी भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध है । इनके दो भाष्य उपलब्ध हैं-बृहत्कल्पलघुभाष्य और पंचकल्प महाभाष्य । मुनिश्री पुण्यविजयजी के मतानुसार संघदासगणी नाम के दो आचार्य हुए हैं । एक वसुदेव हिंडी के प्रणेता और दूसरे बृहत्कल्पलघुभाष्य व पंचकल्पमहाभाष्य के कर्ता । क्योंकि वसुदेव हिंडी के कर्ता आचार्य धर्मसेनगणी के कथनानुसार वसुदेव हिंडी प्रथम खण्ड के प्रणेता 'वाचक' पद से अलंकृत थे जबकि भाष्य प्रणेता संघदासगणी 'क्षमाश्रमण' पद से। लेकिन केवल उपाधिभेद से व्यक्तिभेद की कल्पना करना उचित नहीं है। कभी-कभी एक ही व्यक्ति दो पदवियों से अलंकृत हो सकता है और विभिन्न दृष्टियों से उनका समयानुसार प्रयोग भी होता है । अतः संघदासगणी नाम से दो अलग-अलग आचार्य हुए हों यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। यह सत्य है कि संघदासगणी आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं।
अन्य भाष्यकारों का भी अनुमान किया जाता है लेकिन उनका निश्चित पता नहीं लगने से यही माना जायेगा कि भाष्यकारों में आचार्य जिनभद्र और संघदासगणी प्रमुख हैं।
चूणिकार-नियुक्ति और भाष्य के अनन्तर व्याख्या विधि में अंतर आया। नियुक्ति और भाष्य की भाषा प्राकृत एवं शैली पद्यात्मक रही। उनके पश्चात् उत्तरवर्ती आचार्यों ने गद्यात्मक व्याख्या का निर्माण किया। यह व्याख्या
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