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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड
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जैन साधना-पद्धति में ध्यान
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* साध्वी दर्शनप्रभा, बी० ए०
जीवन में मानवीय सद्गुणों के विवेकपूर्ण विकास की प्रक्रिया को साधना कहा है। साधना के कई रूप हैं, किन्तु सभी साधना-पद्धतियों का एक ही संलक्ष्य है-सद्गुणों का उत्कर्ष कर स्थायीसुख को प्राप्त करना। अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ना, अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति करना, मृत्यु से अमरत्व की ओर कदम बढ़ाना और विभाव से स्वभाव की ओर प्रगति करना। साधना का संलक्ष्य है पूर्णता की प्राप्ति । एक बार के प्रयत्न से पूर्णता नहीं आती। उसके लिए सतत प्रयास अपेक्षित है। ज्यो-ज्यों मोह की मात्रा कम होती है त्यों-त्यों साधक के कदम प्रगति की ओर बढ़ते हैं । साधना का समय एक अभ्यास का काल है। वह साधनाकाल में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यगतप की आराधना कर आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी विजातीय तत्त्व को नष्ट करता है।
जैन साधना-पद्धति में ध्यान का सर्वोपरि स्थान है । ध्यान का अर्थ है मन को अनेक में से एक में, और एक से आत्मा में लीन कर देना। यह कठिन क्रिया है। इस क्रिया में जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को खपा दिया है वे भी कितना पथ पार कर सके हैं यह एक प्रश्न है । जो साधक यह मानते हैं कि हम घण्टों तक निर्विकल्प समाधि में अवस्थित रहते हैं, पर यह केवल उनके मन का भ्रम ही है। नाक के अग्रभाग पर, श्वास पर, या अन्य किसी भौतिक अवलंबन पर टिका हुआ मन उस वस्तु में रहता है। जैन दृष्टि से पूर्ण योगनिरोध रूप शैलेशी समाधि का कालमान पाँच ह्रस्व अक्षर जितना माना गया है और वह भी वीतराग भगवान के जीवन के अन्तिम क्षणों में ही होता है । अवशेष जो ध्यान की प्रक्रिया है उसमें मुख्य रूप से चिन्तन होता है। जैन दृष्टि से (१) पृथक्त्ववितर्कसविचार, (२) एकत्ववितर्कअविचार (३) सूक्ष्म क्रियाअप्रतिपाती (४) समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति-ये शुक्ल ध्यान-प्रक्रिया के चार प्रकार हैं, जिसमें साधक का चिन्तन क्रमशः सिमटता चला जाता है । बौद्ध परम्परा में भी प्रथम ध्यान के वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता ये पाँच अंग हैं । क्रमशः उनका सारांश इस प्रकार है-ध्येय में चित्त का गहराई से प्रवेश वितर्क है। मन का ध्येय से बाहर नहीं जाना विचार है। मानसिक आनन्द प्रीति है; काम, व्यापार स्त्यानगर, औद्धत्य, विचिकित्सा-इन पाँच नीवरणों को अपने में समाहित हुए देखकर मन में आल्हाद उत्पन्न होता है। उसी आल्हाद से प्रीति उत्पन्न होती है। प्रीति से तन शान्त हो जाता है जिससे काय-सुख उत्पन्न होता है । एकाग्रता का अर्थ समाधि है । द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार ये दो अंग नहीं होते जिससे आंतरिक प्रसाद व चित्त की एकाग्रता होती है। इस ध्यान में निष्ठा, प्रीति, सुख व एकाग्रता की प्रधानता होती है । तृतीय ध्यान में तृतीय अंग प्रीति भी नहीं होती। केवल सुख और एकाग्रता की प्रधानता रहती है । सुख की भावना साधक के चित्त में विक्षेप पैदा नहीं करती जिससे चित्त में विशेष शांति और समाधान बना रहता है। चतुर्थ ध्यान में शारीरिक सुख-दुःख का पूर्णरूप से त्याग कर साधक रागद्वेष से रहित हो जाता है और उसमें एकाग्रता के साथ उपेक्षा और स्मृति ये दो मनोवृत्तियाँ होती हैं । इसमें सौमनस्य-दौर्मनस्य के लुप्त हो जाने से चित्त सर्वथा निर्मल और विशुद्ध बन जाता है।
बौद्ध साहित्य में ध्यान के अन्य चार भेद भी है-१. कायानुपश्या, २. वेदनानुपश्य ३. चित्तानुपश्या ४. धर्मानुपश्या । साधक कायानुपश्या से काया सम्बन्धी, वेदनानुपश्या से वेदना सम्बन्धी, चित्तानुपश्या से चित्त सम्बन्धी और धर्मानुपश्या से धर्म सम्बन्धी चिन्तन करता है।
ध्यान एक साधना है। उसके बाह्य और आभ्यन्तर ये दो रूप हैं । शारीरिक आदि एकाग्रता उसका बाह्य रूप है; अहंकार-ममकार आदि मनोविकारों का न होना उसका आभ्यन्तर रूप है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो एकाग्रता ध्यान का शरीर है और अंहमाव-ममत्व आदि का परित्याग उसकी आत्मा है। मनोविकारों के बिना परित्याग के काय, वाक् और मन में स्थैर्य नहीं आ सकता और न समता ही प्रस्फुटित हो सकती है । एकाग्रता व स्थिरता के साथ मनोविकारों का परित्याग वास्तविक साधना है।
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