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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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(११) धूवणविहि-महल सुवासित करने अगरबत्ती आदि घूप देने की वस्तुओं की संख्या कम करना । (१२) भोयणविहि-पेय पदार्थों की मर्यादा। (१३) भक्खणविहि-भक्ष्य-खाने योग्य वस्तुओं की संख्या नियमित करना।
(१४) ओदणविहि-चावल, खिचड़ी, दूधपाक, थूली, खीच, खीचड़ा, मक्की, गेहूं, आदि का रोटी के अतिरिक्त खाद्य की मर्यादा करना ।
(१५) सूवविहि-दालों की गिनती रखना जैसे-उड़द की दाल, मूंग की दाल, तुवर की दाल, मसूर की दाल आदि की मर्यादा।।
(१६) धयविहि-घृत, दूध, दधि, गुड़, शर्करा, नवनीत आदि विगयों में प्रतिदिन एक या दो कम करके मर्यादा करना।
(१७) सागविहि-लौकी, टमाटर, भिण्डी, तुरई, ककड़ी इत्यादि सब्जियों की संख्या नियमित करना।
(१८) माहुराविहि-काजु, बिदाम, पिस्ता, अजीर, चारोली आदि खाने के मेवा की संख्या नियमित रखना।
(१९) जेमणविहि-भोजन के पदार्थों की मर्यादा। (२०) पाणियविहि-पीने के जल का प्रतिदिन नाप रखना। (२१) मुहवासविहि-लौंग, इलायची, पान सुपारी आदि मुखशोधक पदार्थों की निश्चित संख्या रखना।
(२२) वाहणविहि-बैलगाड़ी, इक्का, रथ, मोटर, रेल, वायुयान, अश्व, गज, ऊँट, आदि यात्रा के वाहनों की संख्या का नियम।
(२३) उपानतविहि-पर रक्षक जूते आदि। (२४) शयनविधि-शय्या, पलंग आदि । (२५) सचित्तविधि-सचित्त वस्तुओं की मर्यादा ।
(२६) द्रव्यविधि-द्रव्यों की मर्यादा। अष्टम अनर्थदण्डविरमणव्रत
निरर्थक पापाचार से बचने के लिए इस व्रत की व्यवस्था की गई है। इस व्रत में चार तरह के कार्यों का त्याग किया जाता है, वह है-"अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंस्रप्रदान एवं पापकर्मोपदेश । (१) अपध्यानाचरित - अपने से प्रतिकूल व्यक्तियों के विनाश का विचार करना जैसे अमुक व्यक्ति का धन नष्ट हो जाय, पुत्र मर जायें इत्यादि क्र र चिन्तन का परित्याग करना एवं अपने प्रियजनों की मृत्यु होने पर, सम्पत्ति का नाश होने पर निरर्थक चिन्ता में घुलते रहना इन दोषों से बचना इस व्रत का उद्देश्य है (२) प्रमादाचरित-शुभ कार्यों में आलस्य न करना (३) हिंस्र प्रदान-ऋर व्यक्तियों को शिकार खेलने के लिए शस्त्रास्त्र देना (४) पापकर्मोपदेश-निरपराधी मनुष्य या पशु को हास्य या क्रीड़ा के लिए मारने का उपदेश करना या वेश्यावृत्ति को प्रेरणा देना। व्रतों के अतिचार
अपने व्रतों की सुरक्षा करने के लिए श्रावक को उन व्रतों के दोषों का ज्ञान होना अत्यावश्यक है । अतिचारों के सेवन करने पर श्रावक अपने व्रतों का आंशिक रूप से उल्लंघन करता है। उपासकदशांगसूत्र में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने आनन्द श्रावक को श्रावकधर्म की प्रतिज्ञा कराते समय अपने श्रीमुख से द्वादशव्रतों के साठ अतिचारों का निरूपण किया है। उन्होंने कहा-स्थूल प्राणातिपातविरमणव्रत के पाँच अतिचार श्रावक को जानने योग्य हैं किन्तु समाहृत करने योग्य नहीं है, वे हैं-बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार एवं भक्तपान का विच्छेद ।२१
(१) बन्ध-अपने आश्रित किसी भी मनुष्य या पशु को कठोर बन्धन में बाँधना, उसकी शक्ति से अधिक कार्य लेना, अधिक समय तक रोक रखना, अनुचर आदि को अवकाश के समय उसके घर नहीं जाने देना इत्यादि । विवाहोत्सव, मृत्युभोज, आदि सोमाजिक उत्सवों में निर्धन व्यक्तियों पर अनुचित आर्थिक भार डालना भी एक सामाजिक बन्धन है। अतः शारीरिक बन्धन के अतिरिक्त वाचिक, मानसिक, वैचारिक, सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक कार्य भी बन्धन है।
(२) वध-निरपराधी मनुष्य या पशु का क्रीड़ा हास्य तथा अन्य कारण से दण्ड, असि, आदि से गाढ़ प्रहार या सर्वथा प्राणरहित करना ।
ता है। उपासन द्वादशन्नतों के सा योग्य हैं
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