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श्रावकाचार : एक परिशीलन
नरक, मनुष्य व चतुर्थ में देवगति के जीव, पाँचवें में षट्द्रव्य, षष्ठम में मन-वचन-काय त्रियोग के कारण एवं सप्तम अध्याय में उससे निवृत होने के उपायस्वरूप देशविरति एवं सर्वविरतिचारित्र की व्याख्या की गई है। आठवें में कर्मबन्ध के हेतु, नौवें में संवर निर्जरा व ध्यान का स्वरूप व दसवें में मुक्ति का स्वरूप है । तात्पर्य यह है कि इस मोक्षशास्त्र में मुक्तिमार्ग का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठाइसवें अध्याय में मोक्षमार्ग गति का विवेचन है । उसमें और इसमें बहुत अधिक साम्य है । मुक्ति के साधक के लिए ज्ञान-दर्शन जितने अपेक्षित हैं उतना ही चारित्र भी अपेक्षित है ।" ज्ञान के द्वारा मुक्त जीव का स्वरूप समझा जाता है तो दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा विश्वास होता है तथा चारित्र के द्वारा अशुभ का निग्रह एवं तप के द्वारा पूर्णविशुद्धि प्राप्त होती है । प्रत्येक कार्य का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है, निरूद्देश्य कोई कार्य नहीं होता । आत्मा जब मुक्ति का पथिक होता है तो मुक्ति ही उसका अन्तिम ध्येय है, साध्य है, लक्ष्य एवं वही आराध्य व अन्तिम विश्रान्ति है । पथिक सदैव पथ पर चलता ही नहीं रहता, वह मञ्जिल प्राप्त करने पर विश्रान्ति भी करता है । इसीप्रकार सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र मुक्ति का पथ है किंतु उसकी भी एक निश्चित सीमा है जो कि चरम एवं परम है । यह मुक्ति का पथ आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है और न ही मुक्ति कहीं दूर है। एक दृष्टि से मुक्ति का पथ व मुक्ति का स्वरूप आत्मा का ही एक शुद्ध स्वरूप है अतः एक मुक्तात्मा व बद्धात्मा में शक्ति व अभिव्यक्ति का अन्तर है । जैसे मलयुक्त तन तथा वस्त्र वाले व्यक्ति में एवं स्नानयुक्त व्यक्ति में अन्तर होता है । उत्तराध्ययन सूत्र के मोक्षमार्गगति अध्ययन में जो मुक्ति का मार्ग है वहीं उसका स्वरूप व लक्षण बताया है। अतः आत्मा मुक्ति का मार्ग एवं मुक्ति अपने आप में ही उपलब्ध करता है । क्योंकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण है' अर्थात् शुद्धात्मा का अपना स्वरूप है। और जो आत्मा का स्वरूप है वह आत्मा से तादात्म्य सम्बन्ध से रहता है । अतः उसे बाहर ढूंढना व्यर्थ है । इस दृष्टि से श्रमण भी मुक्ति का पथिक है और श्रावक भी मुक्ति का पथिक है ।" दोनों में इतना ही अन्तर है कि एक अपनी सम्पूर्ण शक्ति व सम्पूर्ण समय साधना में अर्पित करता है किंतु द्वितीय आंशिक समय के लिए साधना में अपनी शक्ति लगाता है । अतः प्रथम को सर्वविरत एवं द्वितीय को देशविरत कहा जाता है। किंतु दोनों के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व वीर्य आदि मुक्ति-मार्ग व साधन में एकता है, दोनों के साध्य साधन एक है। जैसे दो पथिक एक ही पथ पर चलते है । चाहे उनमें से एक वायुयान से चले और दूसरा बैलगाड़ी या पैदल यात्रा करें। किन्तु ये दोनों एक लक्ष्य व एक मन्जिल पर पहुँचने के इच्छुक हैं तो वे एक ही पथ के पथिक कहे जाते हैं। ऐसे ही श्रमण व श्रावक दोनों ही एक मुक्ति मार्ग के पथिक
हैं ।
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श्रावकशब्द के पर्यायवाची
जैनदर्शन में 'श्रावक' शब्द उस विशिष्ट व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है जो कि धर्म की आंशिक रूप से साधना करता है । स्थानांगसूत्र में धर्म के दो भेद बताये हैं—वे हैं श्रुतधर्म व चारित्रधर्म ।" उसमें प्रथम श्रतधर्म के दो भेद हैं सूत्ररूप श्रुतधर्म व अर्थरूप श्रुतधर्मं । तदन्तर द्वितीय चारित्रधर्म के दो भेद किये हैं-" आगार चारित्रधर्म व अनगार चारित्रधर्म ।" आगार का अर्थ होता है 'गृह' । जो व्यक्ति गृह में रहता हुआ धर्म की साधना करता है उसके धर्म को आगार चारित्रधर्म कहते है । इसीलिए 'श्रावक' का एक पर्यायवाची शब्द आगारिक मी होता है ।" जैनागमों में अधिकतर श्रावक शब्द के लिए श्रावक एवं श्रमणोपासक शब्द का प्रयोग हुआ है । 'श्रावक' शब्द 'शृ' धातु से निष्पन्न हुआ है उसका तात्पर्य है श्रद्धापूर्वक निथ प्रवचन सुनने वाला। किन्तु श्रावक केवल सुनता ही नहीं, यथाशक्ति उसका आचरण करता है अतः श्राद्धविधि ग्रन्थ में 'श्रावक' शब्द के तीन अक्षरों से तीन तात्पर्य बताये हैं, वह हैं 'श्रा' का अर्थ श्रद्धापूर्वक तस्वार्थं श्रवणकर्ता । 'व' का अर्थ सत्पात्रों में अशनादि दानरूप बीज का वपन करने वाला एवं 'क' का तात्पर्य सुसाधु की सेवा के द्वारा पापकर्म दूर करने वाला । इस प्रकार संक्षिप्त में 'श्रा' - श्रद्धावान 'व' - विवेकी 'क' - क्रियावान यह तीनों अक्षरों का तात्पर्य है ।" उत्तराध्ययनसूत्र में 'श्रावक' शब्द का प्रयोग हुआ है । जैसे – 'चम्पानगर में पालित नाम का श्रावक रहता था ।"" भगवतीसूत्र व उपासकदसांगसूत्र में अनेक स्थलों पर श्रमणोपासक शब्द का प्रयोग हुआ है जैसे "श्रावस्ती नगरी में बहुत शंख प्रमुख श्रमणोपासक निवास करते थे। इस प्रकार "श्रावक" शब्द के श्रमणोपासक, आगारिक, देशविरत, गृहस्य वादित संपता संपति तावती प्रस्वास्वानाप्रत्यास्थानीइत्यादि
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अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं ।
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श्रावक की प्रतिज्ञाएं
श्रावक जीवन एक विशिष्टतम जीवन है। यह जीवन मानव को जन्म से ही प्राप्त नहीं होता अथवा किसी श्रावक
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