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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन पन्ध : पंचम खण्ड
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इन भूमिकाओं को हम आध्यात्मिक दृष्टि से ज्ञान और अज्ञान की भूमिकाएं स्वीकार करते हैं तो भी गुणस्थानों के साथ इनकी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि गुणस्थानों में जिस प्रकार वैज्ञानिक क्रम है उस प्रकार के व्यवस्थित क्रम का इनमें अभाव है। गुणस्थान और योग
गुणस्थानों में आध्यात्मिक विकास का क्रम मुख्य है और योग में मोक्ष के साधन का विचार प्रमुख रूप से किया गया है। यद्यपि दोनों का प्रतिपाद्य विषय पृथक्-पृथक् है तथापि एक विचार में दूसरा विचार आ ही जाता है । क्योंकि कोई भी आत्मा सीधा मोक्ष प्राप्त नहीं करता, अपितृ क्रमानुसार ही उत्तरोत्तर विकास करता हुआ अन्त में उसे प्राप्त करता है । इसलिए योग में मोक्ष की साधन रूप विचारधारा में आध्यात्मिक विकास के क्रम का वर्णन आ ही जाता है । आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है इस पर चिन्तन करते हुए आत्मा के शुद्ध मुद्धतर और शुद्धतम परिणाम जो मोक्ष के साधन रूप हैं वे भी इसमें आ जाते हैं। योग किसे कहते हैं ?
वैदिक परम्परा में वेद का मुख्य स्थान है । वेदों में भी सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। उसका अधिकांश भाग आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णनों से भरा हुआ है । वस्तुतः वेदों में आध्यात्मिक वर्णन बहुत ही कम आया है। ऋग्वेद के मन्त्रों में योग शब्द का उपयोग हुआ है। किन्तु वहाँ पर उसका समाधि और आध्यात्मिक भाव विवक्षित नहीं हुए हैं । उपनिषदों में योग पद प्रयुक्त हुआ है।" यह स्मरण रखना चाहिए जहाँ उपनिषदों में योग शब्द आया है उसका मुख्य सम्बन्ध सांख्य तत्त्वज्ञान और उससे अवलंबित किसी योग परम्परा के साथ है। महाभारत में अनेक स्थलों पर योग शब्द आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । किन्तु वहाँ पर भी उसका मुख्य सम्बन्ध सांख्य परम्परा के साथ है । गीता में आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द का प्रयोग यत्र-तत्र हुआ है। तिलक ने गीता रहस्य में इसी कारण गीता को योगशास्त्र कहा है । गीता का योग भी सांख्य तत्त्वज्ञान की भूमिका पर प्रतिष्ठित है । १६ ।
जैन आगम साहित्य में योग शब्द आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पर वह तप शब्द की तरह व्यापक रूप से विवृत नहीं हुआ। बौद्ध साहित्य में भी योग शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु वह समाधि शब्द की तरह व्यापक नहीं बन सका । तथ्य यह है कि जब से सांख्य तत्त्वज्ञों ने आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द का प्रयोग विशेष रूप से प्रारम्भ किया तब से प्रायः सभी आध्यात्मिक * परम्पराओं का ध्यान योग शब्द पर केन्द्रित हुआ और उन्होंने योग शब्द को इस दृष्टि से अपनाया।
___ योगलक्षण द्वात्रिंशिका ८ में लिखा है-आत्मा का धर्म व्यापार मोक्ष का मुख्य हेतु और बिना विलम्ब से जो फल देने वाला हो वह योग है । जिस क्रिया से आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है, वह योग है। योग शब्द 'युज्' धातु 'घन' प्रत्यय मिलने से बनता है। युज धातु के दो अर्थ हैं-संयोजित करना व जोड़ना।" और दूसरा अर्थ है मन की स्थिरता और समाधि । आत्मा का परमात्मा के साथ, जीव का ब्रह्म के साथ संयोग योग है। योग शुभभाव, या अशुभभाव पूर्वक किये जाने वाली क्रिया है। आचार्य पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा है ।२२ उसका भी तात्पर्य यही है कि ऐसा निरोध मोक्ष का मुख्य कारण है । क्योंकि उसके साथ कारण और कार्य रूप से शुभ भाव का अवश्य सम्बन्ध उसके साथ होता है।
आत्मा अनादिकाल से इस विराट विश्व में परिभ्रमण कर रहा है । जब तक आत्मा मिथ्यात्व से ग्रसित रहता है तब तक उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति अशुभ होने से योग वाली नहीं है । और जब मिथ्यात्व नष्ट होता है और सन्मार्ग की ओर वह अभिमुख होता है तब उसका कार्य शुभ भाव युक्त होने से योग कहा जाता है । इस प्रकार मिथ्यात्व के नष्ट होने से उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति निर्मल भावना को लिये हुए होती है, अतः मोक्ष के अनुकूल होने के कारण वह शुभभाव युक्त होने के कारण योग कहलाती है । उसे जैन परिभाषा में अचरम पुद्गल परावर्त और चरम पुद्गल परावर्त कह सकते हैं । अचरम पुद्गल परावर्त में मिथ्यात्व रहता है, किन्तु चरम पुद्गल परावर्त में मिथ्यात्व शनैः-शनैः हटने लगता है और आत्मा मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ता है । आचार्य पतंजलि ने भी अनादि सांसारिक काल निवृत्ताधिकार प्रकृति और अनिवृत्ताधिकार प्रकृति कहा है ।२५
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* योगशतक, प्रस्तावना, डा० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी, गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद पृ० ३५-३६
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