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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम : गुणस्थान
इन आठ भूमिकाओं के साथ जो गुणस्थानों की तुलना की गयी है वह भी एक देशीय ही है । जैसा गुणस्थानों में विकास का क्रम प्रतिपादित है वैसा तो नहीं किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से समझने के लिए यह क्रम उपयोगी है ऐसा अवश्य कह सकते हैं । *
जैन गुणस्थान और बौद्ध अवस्थाएं बौद्ध-दर्शन में भी आत्मा के विकास के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। उसने आत्मा की, संसार और मोक्ष आदि अवस्थाएँ मानी हैं । त्रिपिटक साहित्य में आध्यात्मिक विकास का वर्णन उपलब्ध है। हीनयान और महायान दोनों में आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं को लेकर मतभेद है । हीनयान का लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण या अर्हत् पद प्राप्ति है । वह आध्यात्मिक विकास की चार भूमिकाएं मानता है । महायान सम्प्रदाय का लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के साथ लोक मंगल की साधना करना भी है । वह आध्यात्मिक विकास की दस भूमियाँ मानता है।
बौद्धधर्म में विश्व में जितने भी प्राणी हैं उन्हें पृथक्जन (मिथ्यादृष्टि) आर्य (सम्यक् दृष्टि) इन दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है । पृथकजन अविकास का काल है और आर्य विकास का काल है, जिसमें साधक सम्यक् दृष्टि को प्राप्त कर निर्वाण मार्ग की ओर अग्रसर होता है । यह सत्य है कि सभी पृथक्जन एक समान नहीं होते। कुछ पृथक् जन सदाचारी होते हैं और वे सम्यक्हृष्टि के बहुत ही सन्निकट होते हैं । पृथक्जन को अन्धपृथक्जन और कल्याणपृथक् जन इन दो भागों में विभक्त किया है। अन्धपृथक्जन में मिथ्यात्व की तीव्रता होती है किन्तु कल्याणपृथक् जन निर्वाण मार्ग पर अभिमुख होता है पर उसे प्राप्त नहीं करता। मज्झिमनिकाय में प्रस्तुत भूमिका का वर्णन है । जैन दृष्टि से उस साधक की अवस्था मार्गानुसारी कही जा सकती है जिसके ३५ गुण बताये गये हैं।८।।
हीनयान की दृष्टि से जो सम्यक्दृष्टि से युक्त निर्वाण मार्ग के पथिक साधक हैं उन्हें अपने लक्ष्य को संप्राप्त करने हेतु चार भूमिकाओं को पार करना होता है । वे भूमिकाएँ इस प्रकार हैं
(१) श्रोतापन्न भूमि-श्रोतापन्न का अर्थ है धारा । जो साधक कल्याण मार्ग के प्रवाह में प्रवाहित होकर अपने लक्ष्य की ओर मुस्तैदी कदम बढ़ा रहा है वह साधक तीन संयोजनों अर्थात् बन्धनों को क्षय करने पर प्रस्तुत अवस्था को प्राप्त करता है।
(अ) सत्कायदृष्टि-देहात्म बुद्धि, शरीर जो नश्वर है उसे आत्मा मानकर उस पर ममत्व करना । (आ) विचिकित्सा अर्थात् सन्देहात्मकता। (इ) शीलवत परामर्श ।
इन दार्शनिक एवं कर्मकाण्ड के प्रति मिथ्या दृष्टिकोण एवं सन्देह समाप्त हो जाने से इस भूमि में पतन की सम्भावना नहीं है । साधक निर्वाण के लक्ष्य की ओर गति-प्रगति करता है। श्रोतापन्न साधक बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, संघानुस्मृति और शील और समाधि, इन चार अंगों से युक्त होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति उसके अन्तर्मानस में निर्मल श्रद्धा अंगड़ाइयाँ लेती है, उसका विचार और आचार विशुद्ध होता है, वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण प्राप्त करता है । श्रोतापन्न भूमि की तुलना हम चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक की अवस्था से कर सकते हैं । चतुर्थ गुणस्थान में जीव क्षायिक सम्यक्त्व को उपलब्ध कर लेता है, उसके पश्चात् अन्य अगले गुणस्थानों में दर्शनविशुद्धि के साथ चारित्रविशुद्धि भी होती है । सातवें गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी चतुष्क तथा संज्वलन [क्रोध के नष्ट होने पर केवल संज्वलन] मान, माया और लोभ तथा हास्यादि प्रकृतियाँ इसमें अवशेष रहती हैं इसी तरह श्रोतापन्न भूमि में भी कामधातु(वासनाएं) समाप्त हो जाती हैं किन्तु रूपधातु (आस्रव, राग, द्वेष, मोह) अवशेष रहते हैं।
(२) सकृदानुगामी भूमि-श्रोतापन्न अवस्था में साधक काम-राग (इन्द्रियलिप्सा) और प्रतिध (दूसरे का अनिष्ट करने की भावना) प्रभृति अशुभ बन्धक प्रवृत्तियों का क्षय करता है किन्तु उसमें बन्ध के कारण राग, द्वेष मोह रूपी आश्रव है जिसका पूर्ण रूप से अभाव नहीं होता किन्तु इस भूमिका में उसका लक्ष्य आश्रव क्षय करना है। अन्तिम चरण में वह पूर्ण रूप से काम-राग और प्रतिध को नष्ट कर देता है और अनागामी भूमि की ओर अग्रसर होता है। इस भूमिका की तुलना हम आठवें गुणस्थान से कर सकते हैं । क्योंकि इसमें सोधक राग, द्वेष और मोह पर प्रहार करता है और अन्त में क्षीणमोह को प्राप्त करता है। क्षीणमोह को ही बौद्ध दृष्टि में अनागामी भूमि कहा है। जैन दृष्टि से
* देखिए-'आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम गुणस्थान सिद्धान्त' -ले० डा० सागरमल जैन
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