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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड
नौवें गुणस्थान के पाँच भाग हैं । उनमें प्रथम भाग में २२ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । आठवें गुणस्थान में जो २६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है उसमें से हास्य, रति, दुर्गंच्छा, मय, ये चार कर्मप्रकृतियाँ कम करने से शेष २२ का बन्ध होता है ।
द्वितीय भाग में २१ प्रकृतियां बंधती हैं, यहाँ पूर्व प्रकृतियों में से पुरुष वेद कम करना चाहिए ।
तृतीय भाग में २० का बन्ध होता है, संज्वलन क्रोध कम करना चाहिए।
चतुर्थ भाग में
१६ प्रकृतियाँ बँधती हैं, संज्वलन मान कम करना चाहिए ।
पांचवें भाग में १८ प्रकृतियाँ बंधती हैं । उपरोक्त में से संज्वलन माया कम करनी चाहिए।"
१०. सूक्ष्म- सम्पराय
इस गुणस्थान में सूक्ष्म लोभरूप कषाय का ही उदय रहता है । अन्य कषायों का उपशम या क्षय हो जाता है । जैसे धुले हुए कुसुमी रंग के वस्त्र में लालिमा की सूक्ष्म आभा रह जाती है। इसी प्रकार इस गुणस्थान में लोभ कषाय सूक्ष्म रूप से रह जाता है। इसी कारण इस गुणस्थान को सूक्ष्म सम्पराय ( कषाय ) गुणस्थान कहा है । दसवें गुणस्थान के प्रारम्भ में १७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किन्तु उसके अन्त में पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, उच्च गोत्र और यश: कीर्ति इन सोलह प्रकृतियों का बन्ध रुक जाता है । अतः ग्यारहवें, बारहवे, तेरहवें गुणस्थान में केवल एक सातावेदनीय का ही बन्ध होता है । चूंकि इन गुणस्थानों में कषाय का अभाव रहता है इसलिये सातावेदनीय की स्थिति अधिक नहीं बँधती । किन्तु योग के सद्भाव होने से एक समय की स्थिति वाला ही सातावेदनीय कर्म का स्थिति का बन्ध मानते हैं। उनके मतानुसार प्रथम समय में सातावेदनीय निर्जीर्ण हो जाते हैं ।
बन्ध होता है । कुछ आचार्य दो समय की कर्म के परमाणु आते हैं और दूसरे समय में
११. उपशान्तमोह
दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का उपशमन होते ही वह जीव ग्यारहवाँ गुणस्थान में आता है । जैसे गँदले जल में कतक फल या फिटकरी आदि फिराने पर उसका मल भाग नीचे बैठ जाता है और स्वच्छ जल ऊपर रह् जाता है, वैसे ही उपशमश्र ेणी में शुक्लध्यान से मोहनीय कर्म जघन्य एकसमय और उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है जिससे कि जीव के परिणामों में एकदम वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता आ जाती है । एतदर्थ इसे उपशान्तमोह या उपशान्तकषाय गुणस्थान कहते हैं । *५
इस गुणस्थान में वीतरागता तो आ जाती है किन्तु ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म विद्यमान रहते हैं । अतः वीतरागी बन जाने पर भी वह जीव छद्मस्थ या अल्पज्ञ है, सर्वज्ञ नहीं ।
मोहकर्म का उपशमन एक अन्तर्मुहूर्त काल के लिए होता है। उस काल के समाप्त होने पर राख से दबी हुई अग्नि की भाँति वह पुन: अपना प्रभाव दिखाता है । परिणामतः आत्मा का पतन होता है और वह जिस क्रम से ऊपर चढ़ता है उसी क्रम से नीचे के गुणस्थानों में आ जाता है। यहाँ तक कि इस गुणस्थान से गिरने वाला आत्मा कभी कभी प्रथम गुणस्थान तक पहुँच जाता है। इस प्रकार का आत्मा पुनः प्रयास कर प्रगति पथ पर बढ़ सकता है । इस सम्बन्ध में गीता का अभिमत है कि दमन के द्वारा विषय कषाय का निवर्तन तो हो जाता है, किन्तु उसके पीछे रहे हुए अन्तर्मानस की विषय संबंधी भावनाएं नष्ट नहीं होतीं जिससे समय पाकर वे पुनः उद्बुद्ध हो जाती हैं । अतः दमन द्वारा उच्चतम स्थिति पर पहुँचा हुआ साधक पुनः पतित हो जाता है । ग्यारहवें गुणस्थान में मृत्यु प्राप्त करने वाला मुनि अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है ।
१२. क्षीण-मोह
इस भूमिका में मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है । कषायों को नष्ट कर आगे बढ़ने वाला साधक दसवें गुणस्थान के अन्त में लोभ के अन्तिम अवशेष को नष्टकर मोह से सर्वथा मुक्ति पा लेता है । इस अवस्था का नाम क्षीणमोह, क्षीणमोह वीतराग, या क्षीणकषाय है ।" इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का पतन नहीं होता ।
भगवान ने कहा- कर्म का मूल मोह है । सेनापति के भाग जाने पर सेना स्वतः भाग जाती है। वैसे ही मोह के नष्ट होने पर एकत्व - विचार शुक्लध्यान के बल से एक अन्तर्मुहूर्त में ही ज्ञान और दर्शन के आवरण तथा अन्तराय ये तीनों कर्म-बन्धन टूट जाते हैं और साधक अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तशक्ति से युक्त हो जाता है ।
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