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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम लण्ड
को नहीं पा लेता तब तक वह सासादनभाव का अनुभव करता है। इसलिए उस जीव को सास्वादन सम्यदृष्टि कहते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व के काल में जितना काल शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी किसी एक कषाय के उदय से वह उपशमसम्यक्त्व से गिरता है उसने ही ( एक समय से लेकर यह आवलिका) समय तक वह सासादन सम्यष्टि नामक दूसरे गुणस्थान में रहता है । उक्त काल के पूर्ण होते ही मिथ्यात्व कर्म का उदय हो जाता है और वह प्रथम गुणस्थान को प्राप्त होकर मिथ्यादृष्टि बन जाता है। २
२. सास्वादन सम्यष्टि
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द्वितीय गुणस्थान का नाम सास्वादनसम्यग्दृष्टि है। प्राकृत भाषा में “सासायण" शब्द है । उसके संस्कृत दो रूप मिलते हैं -सास्वादन और सासादन । जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् मिथ्यात्वाभिमुख जीव के सम्यक्त्व का आंशिक आस्वादन शेष रहता है। उसकी अवस्था को सास्वादन गुणस्थान कहा है । अ
औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत होता हुआ जीव सम्यक्त्व का आसादन (विराधन) करता है एतदर्थ उसे सासादन कहा गया है ।" यह प्रतिपाती सम्यक्त्व की अवस्था है । औपशमिक सम्यक्त्व के काल में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क में से किसी एक कषाय का उदय होते ही जीव सम्यक्त्व से नीचे गिरता है । 34 किन्तु मिथ्यात्व मोहनीय का जब तक उदय न हो तब तक वह मिथ्यादृष्टि नहीं है, अर्थात् वह द्वितीय गुणस्थानवर्ती है । इसका उत्कृष्ट कालमान छह आवलिका मात्र है । जैसे किसी ने खीर का भोजन किया और तत्काल किसी कारणवश वमन हो गया, उसमें खीर निकल गयी। पर खीर का आस्वादन कुछ समय के लिए अवश्य रहता है। यह स्थिति प्रस्तुत गुणस्थान की है। सम्यक्त्व की खीर का तो वमन हो गया, किन्तु कुछ आस्वादन बने रहने से इसे सास्वादन कहते हैं और सम्यक्त्व की विराधना होने से यह सासादन सम्यक्त्वी भी कहलाता है ।
यद्यपि द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव पतनोन्मुख है, तथापि मिच्यात्यमोहनीय के निमित्त से बँधने वाली सोलह प्रकृतियों का उसके बन्धन नहीं होता, अर्थात् जहाँ मिथ्यात्वी एक सौ सत्रह कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है वहाँ सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव निम्नलिखित कर्मत्रकृतियों के बिना एक सौ एक कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है-वे सोलह इस प्रकार हैं- (१) नरकगति (२) नरकायु (३) नरकानुपूर्वी (४) एकेन्द्रिय जाति (५) हीन्द्रिय जाति (६) श्रीन्द्रिय जाति (७) चतुरिन्द्रिय जाति (८) स्थावर नामकर्म (2) सूक्ष्म नामकर्म (१०) अपर्याप्त नामक (११) साधारण नामकर्म (१२) आतप नामकर्म (१३) हुण्डक संस्थान नामकर्म (१४) सेवार्त संहनन नामकर्म (१५) मिथ्यात्व (१५) नपुंसक वेद "
३. सम्पमच्यादृष्टि
जिसकी दृष्टि मिया और सम्यम् दोनों परिणामों से निश्रित है वह सभ्यमिध्यादृष्टि या मित्रदृष्टि
कहलाता है। 3
चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि जीव ने उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के समय जो मिध्यात्वमोहनीय के तीन खण्ड किये थे उनमें से भिन्न अर्थात् सम्यक्त्वमिश्र प्रकृति के उदय आने पर वह चतुर्थ गुणस्थान से गिरता है और तृतीय गुणस्थानवर्ती हो जाता है। इस जीव के परिणाम मिश्रप्रकृति के उदय होने से न केवल सम्यक्त्वरूप ही रहते हैं और न केवल मिध्यात्वरूप ही दोनों के मिले हुए परिणाम रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इस जीव को न जिनोक्त वाणी पर श्रद्धा होती है और न अश्रद्धा ही । जैसे दही और मिश्री के मिश्रण से निर्मित हुए श्रीखण्ड का स्वाद न केवल दहीरूप होता है न मिश्रीरूप होता है । किन्तु दोनों के स्वाद से पृथक् तृतीय खट्टमिट्ठा स्वाद होता है ।" इसी प्रकार इस गुणस्थानवर्ती जीव के सम्यक्त्वमिथ्यात्व के सम्मिश्रणरूप एक भिन्न ही प्रकार का परिणाम होता है, जो परिणाम प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थानों के परिणामों से पृथक है। अतएव उन गुणस्थानों की अपेक्षा इसे एक स्वतन्त्र गुणस्थान माना गया है। इस गुणस्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही है ।" इसके पूर्ण होने पर यह जीव ऊपर चढ़कर सम्यकदृष्टि भी बन सकता है या नीचे गिरकर मिथ्यात्वी भी हो सकता है ।
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इस गुणस्थान में एक विलक्षण अवस्था रहती है। अतः इस गुणस्थान में न आयुष्य का बन्ध होता है, न मरण ही होता है। अतः इस गुणस्थान को अमर गुणस्थान भी कहा गया है।"
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