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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
आत्मा यथार्थ श्रद्धान नहीं कर पाता । उसका विचार, चिन्तन और दृष्टि उसके कारण सम्यक नहीं हो पाती चारित्रमोहनीय के कारण विवेक युक्त आचरण में प्रवृत्ति नही होती। इस प्रकार मोहनीयकर्म के कारण न सम्यग्दर्शन होता है और न सम्यक्चारित्र ही । सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान भी नहीं होता। १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
दर्शनमोहनीय के आधार पर ही प्रथम गुणस्थान का नाम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान रखा गया है। यह आत्मा की अधस्तम अवस्था है। इसमें मोह की अत्यधिक प्रबलता होती है जिससे उस व्यक्ति की आध्यात्मिक-शक्ति पूर्णरूप से गिरी हुई होती है । विपरीत दृष्टि (श्रद्धा) के कारण वह राग-द्वष के वशीभूत होकर अनन्त आध्यात्मिक सुख से वंचित रहता है।
प्रथम गुणस्थान में दर्शन-मोह और चारित्र-मोह इन दोनों की प्रबलता होती है, जिससे वह आत्मा आध्यात्मिक दृष्टि से दरिद्र है । प्रस्तुत भूमिका वाला व्यक्ति आधिभौतिक उत्कर्ष चाहे कितना भी कर ले, किन्तु उसकी सारी प्रवृत्तियाँ संसाराभिमुखी होती हैं, मोक्षाभिमुखी नहीं। जैसे दिग्भ्रमवाला मानव पूर्व को पश्चिम मानकर चलता है, किन्तु चलने पर भी वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। मदिरा पिये हुए व्यक्ति को हिताहित का ध्यान नहीं रहता वैसे ही मोह की मदिरा से उन्मत्त बने हुए मिथ्यात्वी को हिताहित का मान नहीं होता।"
मिथ्यात्व के अनेक भेद-प्रभेद बताये हैं । तत्त्वार्थभाष्य में अभिगृहीत और अनभिगृहीत ये दो मिथ्यात्व के भेद बताये हैं । आवश्यकचूणि और प्राकृत पंचसंग्रह में संशयित, आमिग्रहिक, अनाभिग्रहिक ये तीन मिथ्यात्व के भेद बताये हैं । गुणस्थान क्रमारोह की सोपज्ञवृत्ति में" एवं कर्मग्रन्थ में आभिग्रहिक" अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, संशय और अनाभोगिक ये पांच मिथ्यात्व के भेद बताये हैं। धर्मसंग्रह, कर्मग्रन्थ व लोकप्रकाश२२ में उनका परिचय दिया गया है । संक्षेप में सारांश इस प्रकार है। आभिग्रहिक
बिना तत्त्व की परीक्षा किये किसी एक बात को स्वीकार कर दूसरों का खण्डन करना यह आभिग्रहिक मिथ्यात्व है । जो साधक स्वयं परीक्षा करने में असमर्थ है, किन्तु परीक्षक की आज्ञा में रहकर तत्त्व को स्वीकार करते हैं जिस प्रकार 'माषतुष मुनि' उनको आभिग्रहिक मिथ्यात्व नहीं लगता। अनामिग्रहिक
बिना गुणदोष की परीक्षा किये ही सभी मन्तव्यों को एक ही समान समझना अनामिग्रहिक मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व उन जीवों में होता है जो परीक्षा करने में असमर्थ तथा मन्दबुद्धि हैं, जिससे वे किसी भी मार्ग में स्थिर नहीं रह सकते। आभिनिवेशिक
अपने पक्ष को असत्य समझ करके भी उस असत्य को छोड़ना नहीं अपितु उस असत्य से चिपका रहना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। इसी का अपर नाम एकान्त-मिथ्यात्व भी है। संशय
देव, गुरु और धर्म तत्व के स्वरूप में संशय रखना संशय-मिथ्यात्व है। आगमों के गुरु-गम्भीर रहस्यों को समझने में कभी-कभी गीतार्थ श्रमण भी यह विचारने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि यह समीचीन है या वह समीचीन है ? किन्तु अन्त में निर्णायक स्थिति न हो तो जिनेश्वर देव ने जो कहा है वही पूर्ण सत्य है, यह विचार कर जिन प्ररूपित तत्त्वों पर पूर्ण श्रद्धा रखते हैं। केवल संशय या शंका हो जाना संशय-मिथ्यात्व नहीं है। किन्तु जो तत्त्व-अतत्त्व आदि के सम्बन्ध में डोलायमान चित्त रखते हैं उन्हें संशय-मिथ्यात्वी कहा है। अनाभोगिक
विचार और विशेष ज्ञान का अभाव, अर्थात् मोह की प्रबलतम अवस्था, यह अना भोगिक मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय आदि जीवों में होता है।
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