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लेश्या : एक विश्लेषण
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हैं । यदि उसे किसी कार्य में लाभ होता हो तो वह अन्य व्यक्ति को हानि पहुँचाने में संकोच नहीं करता। किन्तु कृष्णलेश्या की अपेक्षा उसके विचार कुछ प्रशस्त होते हैं।
तीसरी लेश्या का नाम कापोत है जो अलसी पुष्प की तरह मटमैला अथवा कबूतर के कण्ठ के रंगवाला होता है। कापोतलेश्या में नीला रंग फीका हो जाता है। कापोतलेश्या वाले व्यक्ति की वाणी व आचरण में वक्रता होती है। वह अपने दुर्गुणों को छिपाकर सद्गुणों को प्रकट करता है। नीललेश्या से उसके भाव कुछ अधिक विशुद्ध होते हैं । एतदर्थ ही अधर्मलेश्या होने पर भी वह धर्मलेश्या के सन्निकट है।
चतुर्थ लेश्या का रंग शास्त्रकारों ने लाल प्रतिपादित किया है । लाल रंग साम्यवादियों की दृष्टि से क्रांति का प्रतीक है। तीन अधर्मलेश्याओं से निकलकर जब वह धर्मलेश्या में प्रविष्ट होता है तब यह एक प्रकार से क्रांति ही है अतः इसे धर्मलेश्या में प्रथम स्थान दिया गया है।
वैदिक परम्परा में संन्यासियों को गैरिक अर्थात् लाल रंग के वस्त्र धारण करने का विधान है। हमारी दृष्टि से उन्होंने जो यह रंग चुना है वह जीवन में क्रांति करने की दृष्टि से ही चुना होगा। जब साधक के अन्तर्मानस में • क्रांति की भावना उद्बुद्ध होती है तो उसके शरीर का प्रभामंडल लाल होता है । और वस्त्र भी लाल होने से वे आमामंडल के साथ यह मिल जाते हैं। जब जीवन में लाल रंग प्रगट होता है तब उसके स्वार्थ का रंग नष्ट हो जाता है। तेजोलेश्या वाले व्यक्ति का स्वभाव नम्र व अचपल होता है । वह जितेन्द्रिय, तपस्वी, पापभीरु और मुक्ति की अन्वेषणा करने वाला होता है।" संन्यासी का अर्थ भी यही है। उसमें महत्त्वाकांक्षा नहीं होती। उसके जीवन का रंग उषाकाल के सूर्य की तरह होता है । उसके चेहरे पर साधना की लाली हो और सूर्य के उदय को तरह उसमें ताजगी हो।
पंचम लेश्या का नाम पद्म है। लाल के बाद पद्म अर्थात पीले रंग का वर्णन है। प्रातःकाल का सयं ज्यों-ज्यों ऊपर उठता है उसमें लालिमा कम होती जाती है और सोने की तरह पीत रंग प्रस्फुटित होता है। लाल रंग में उत्तेजना हो सकती है पर पीले रंग में कोई उत्तेजना नहीं है। पद्मलेश्या वाले साधक के जीवन में क्रोध-मान-माया-मोह की अल्पता होती है । चित्त प्रशांत होता है । जितेन्द्रिय और अल्पभाषी होने से वह ध्यान-साधना सहज रूप से कर सकता है।" पीत रंग ध्यान की अवस्था का प्रतीक है। एतदर्थ ही बौद्ध संन्यासियों के वस्त्र का रंग पीला है। वैदिक परम्पराओं के संन्यासियों के वस्त्र का रंग लाल है जो क्रांति का प्रतीक है और बौद्ध भिक्षुओं के वस्त्र का रंग पीला है वह ध्यान का प्रतीक है।
षष्टम लेश्या का नाम शुक्ल है । शुभ्र या श्वेत रंग समाधि का रंग है । श्वेत रंग विचारों की पवित्रता का प्रतीक है। शुक्ललेश्या वाले व्यक्ति का चित्त प्रशान्त होता है । मन, वचन, काया पर पूर्ण नियन्त्रण करता है । वह जितेन्द्रिय है ।" एतदर्थ ही जैन श्रमणों ने श्वेत रंग को पसन्द किया है । वे श्वेत रंग के वस्त्र धारण करते हैं। उनका मंतव्य है कि वर्तमान में हम में पूर्ण विशुद्धि नहीं है, तथापि हमारा लक्ष्य है शुक्लध्यान के द्वारा पूर्ण विशुद्धि को प्राप्त करना । एतदर्थ उन्होंने श्वेत वर्ण के वस्त्रों को चुना है ।
लेश्याओं के स्वरूप को समझने के लिए जैन साहित्य में कई रूपक दिये हैं। उनमें से एक-दो रूपक हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । छः व्यक्तियों की एक मित्र मंडली थी। एक दिन उनके मानस में ये विचार उबुद्ध हुए कि इस समय जंगल में जामुन खूब पके हुए हैं। हम जायें और उन जामुनों को भरपेट खायें। वे छहों मित्र जंगल में पहुँचे । फलों से लदे हुए जामुन के पेड़ को देखकर एक मित्र ने कहा यह कितना सुन्दर जामुन का वृक्ष है । यह फलों से लबालब भरा हुआ है । और फल भी इतने बढ़िया हैं कि देखते ही मुंह में पानी आ रहा है । इस वृक्ष पर चढ़ने की अपेक्षा यही श्रेयस्कर है कि कुल्हाड़ी से वृक्ष को जड़ से ही काट दिया जाय जिससे हम आनन्द से बैठकर खूब फल खा सकें।
दूसरे मित्र ने प्रथम मित्र के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा संपूर्ण वृक्ष को काटने से क्या लाभ है ? केवल शाखाओं को काटना ही पर्याप्त है।
तृतीय मित्र ने कहा-मित्र, तुम्हारा कहना भी उचित नहीं है । बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटने से भी कोई फायदा नहीं है । छोटी-छोटी शाखाओं को काट लेने से ही हमारा कार्य हो सकता है। फिर बड़ी शाखाओं को निरर्थक क्यों काटा जाय।
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