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दर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में पुद्गल : एक विश्लेषणात्मक विवेचन
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सूक्ष्म स्थूल-वे इन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन आदि चार इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गल स्कंध । जैसे वायु तथा अन्य प्रकार की गैसें ।
सूक्ष्म-वे सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध जो अतीन्द्रिय हैं । जैसे मनोवर्गणा, भाषावर्गणा, कायवर्गणा आदि ।
सूक्ष्म सूक्ष्म-ऐसे पुद्गल स्कन्ध जो भाषावर्गणा, मनोवर्गणा के स्कन्धों से भी सूक्ष्म है जैसे द्वि प्रदेशी स्कन्ध आदि।
यह छह भेद भी स्कन्ध पुद्गल की अपेक्षा से होते हैं । परमाणु पुद्गल के भेद नहीं होते हैं । जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में परमाणु के लक्षण में किया जा चुका है ।
जीव और पुद्गल की पारस्परिक परिणति और स्वयं पुद्गल के स्वभाव की अपेक्षा उसके तीन भेद भी हैं
प्रयोग परिणत-ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा ग्रहण किये गये हों। जैसे इन्द्रिय, शरीर आदि।
मिश्रपरिणत-जो पुद्गल जीव द्वारा परिणत होकर पुनः मुक्त हो चुके हों। जैसे कटे हुए नख, केश, मल, मूत्र आदि ।
विलसा परिणत-ऐसे पुद्गल जो जीव की सहायता के बिना स्वयं स्वभावतः परिणत है । जैसे बादल, इन्द्रधनुष आदि ।
जनदर्शन में पुद्गल के पूर्वोक्त भेद प्रभेदों के अतिरिक्त कुछ और भी भेद-प्रभेद (पर्याय) माने गये हैं जैसेशब्द, बन्ध, सौक्षम्य, स्थौल्य, भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत आदि । इनमें से कुछ ऐसे पर्याय हैं जिन्हें प्राचीन काल के अन्य दार्शनिक पुद्गल रूप में स्वीकार नहीं करते थे, किन्तु अब उनमें से बहुतों को आधुनिक विज्ञान ने पुद्गल रूप में स्वीकार कर लिया है । वे हैं-शब्द, अन्धकार, छाया, आतप उद्योत आदि ।
शब्द-अन्य दार्शनिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है। लेकिन जैनदर्शन की मान्यतानुसार लोक व्यापी समस्त पुद्गल द्रव्य की तेईस प्रकार की वर्गणाओं (समान जातीय वर्गों) में से एक भाषा वर्गणा है। उसके भिद्यमान अणुओं के ध्वनि रूप परिणाम को शब्द कहते हैं। यह श्रोत्रेन्द्रिय का विषय होने से मूर्त और पौद्गलिक है । इसके दो भेद हैं—माषा रूप और अभाषा रूप । अभाषात्मक दो प्रकार के हैं-प्रायोगिक और वैनसिक । प्रायोगिक शब्द तत, वितत, घन, सुषिर के भेद से चार प्रकार का है। तत, वितत, धन, सुषिर, घोष और भाषा के भेद से शब्द छह प्रकार का है। भाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं-साक्षर और अनक्षर । अथवा आमन्त्रिणी, आज्ञापनी आदि के भेद से भाषात्मक शब्द के अनेक भेद किये जा सकते हैं। इन सब मेदों में सामान्य से समझने के लिये शब्द के दो मुख्य भेद हैं-प्रायोगिक और वैनसिक । प्रयोग पूर्वक उत्पद्यमान ध्वनि प्रायोगिक और मेघादि जन्य स्वाभाविक ध्वनि वैस्रसिक शब्द कहलाते हैं। प्रायोगिक शब्द भाषात्मक और अमाषात्मक हैं। अर्थ प्रतिपादक ध्वनि भाषात्मक और जिस ध्वनि से अर्थ प्रतिपादक भाषा की अभिव्यक्ति न हो वह अभाषात्मक शब्द है। तत (नगाड़े आदि की ध्वनि) वितत (वीणा आदि जन्य ध्वनि) घन (घण्टा आदि की ध्वनि) और सुषिर (बांसुरी, शंख जन्य ध्वनि) के भेद से वह चार प्रकार का है।
अन्धकार-प्रकाश आदि-कृष्ण वर्ण बहुल पुद्गलों का परिणाम अन्धकार है। सूर्य, दीपक आदि के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं। प्रतिबिम्ब रूप पुद्गल परिणाम छाया है और चन्द्र मणि आदि का अनुष्ण प्रकाश उद्योत कहलाता है।
पुद्गलों के सामान्य और विशेष गुण स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, मूर्तत्व और अचेतनत्व ये छह पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण हैं। यद्यपि अचेतन रूप गुण अन्य धर्म अधर्म आदि अजीव द्रव्यों में भी पाया जाता है लेकिन यहाँ जीव (सचेतन) से पृथक् अस्तित्व बताने के लिए अचेतन तत्व को पुद्गल द्रव्य के विशेष गुणों में ग्रहण किया गया है। इनके अतिरिक्त अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व आदि अनेक सामान्य गुण हैं। इन सामान्य गुणों की संख्या इक्कीस है।
पुद्गलों के संस्थान आकृति को संस्थान कहते हैं। संस्थान दो प्रकार का होता है-इत्थंस्थ और अनित्थंस्थ । नियत आकार वाले को इत्थंस्थ और अनियत कार वाले को अनित्थंस्थ संस्थान कहते हैं। त्रिकोण, चतुष्कोण, आयतन, परिमंडल आदि नियत आकार इत्थंस्थ संस्थान हैं और बादल आदि की अनियताकार आकृतियां अनित्थस्थ संस्थान हैं।
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