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भारतीय दर्शनों में आत्मतत्त्व
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आत्मस्वरूप-मीमांसा: आत्मतत्व के निरूपण के पश्चात् आत्मा का स्वरूप क्या है ? इस पर भी भारतीय दार्शनिकों ने कुछ प्रकाश डाला है । पाश्चात्य तत्व चिंतकों ने भी विविध रूप में इसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। नवीन बाह्य विषयवादी के अनुसार, आत्मा बाह्य विषय नहीं है, जिस पर स्नायु मंडल प्रतिक्रिया करता है। यह शरीर का स्नायुमंडल और दैहिक प्रयोजन भी नहीं है, यह ज्ञान का विषय है, ज्ञाता नहीं हो सकता। आत्मा प्राण शक्ति जैव क्रियाओं को उत्पन्न करती है । चेतन आत्मा इन क्रियाओं का कारण नहीं है। नव्य विषयवादी (New Realist) के अनुसार आत्मा कर्ता है, जिसके ज्ञान का साधन इन्द्रियाँ तथा स्नायुमंडल है। कारण कर्ता हो नहीं सकता । आत्मा चेतन ज्ञाता है । चेतना और ज्ञान इसका स्वरूप है। ज्ञान शून्य अचेतन आत्मा प्रकृत आत्मा नहीं है । ज्ञान इसका आगन्तुक गुण नहीं है परन्तु इसका स्वरूप है । आत्मा को द्रव्य (Substance) कहना उचित नहीं है । अचेतन पदार्थ (Matter) ही द्रव्य है । आत्मा ज्ञाता (Subject) है। Self consciousness इसका स्वरूप है। एक आत्मा दूसरी आत्मा में विलीन नहीं हो सकती। आत्माएँ पृथक-पृथक् स्वयं स्थित तत्व है । आत्मा में किसी ने अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त शक्ति का होना बताया तो किसी का ध्यान उसकी सीमाहीनता की ओर गया । आत्मा सीमाहीन अनन्त है! आत्मा केवल विज्ञान, सन्तान अथवा क्षणिक मानसिक क्रियाओं का क्रम नहीं है । यह केवल चेतना प्रवाह भी नहीं है। आत्मा में व्यक्तित्व (Personality) तथा आत्म-नियन्त्रण (Self determination) व संकल्प स्वातंत्र्य समाविष्ट है । इस प्रकार पाश्चात्य विचारकों में आत्म-स्वरूप के विषय में काफी चर्चास्पद विवेचन पाया गया है।
भारतवर्ष का एक शाश्वत विचार चला आया है कि आत्मा शुद्ध, बुद्ध निर्मल और निर्विकार स्वरूप है । भगवान् महावीर ने भी कहा है कि प्रत्येक प्राणी में आत्मा की अनन्त शक्तियां, अमित उज्ज्वलता छिपी है। इसी दृष्टि से मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने यह उद्घोष किया 'आत्मानं विद्धि" अपनी आत्मा को पहचानो। इस एक सिद्धान्त में समस्त धार्मिक उपदेश और युग पुरुषों की शिक्षाएँ समाविष्ट हैं । मनुष्य के अपने अन्दर वह आत्मा है जो प्रत्येक वस्तु का केन्द्र है । आत्मा का प्रत्येक कार्य सृजनात्मक कार्य है, जबकि अनात्मा के सभी कार्य वस्तुतः निष्क्रिय होते हैं। संसार में कोई भी आत्मा एक-दूसरे से भिन्न नहीं है । सभी आत्माएँ समान रूप से अनन्त गुणों की भंडार है । एक आत्मा में जितने गुण हैं, उतने ही और वैसे ही गुण शेष सभी आत्माओं में विद्यमान हैं । ज्ञान, दर्शन, आनन्द, अमरता, सात्विकता आदि सभी गुण प्रत्येक आत्मा के मूल धर्म है । इन गुणों को बाह्य पदार्थों से प्रेरित अथवा जनित नहीं समझना चाहिये । ये वैभाविक नहीं, स्वाभाविक गुण हैं।
भारतीयदर्शन में आत्म-स्वरूप के प्रतिपादन में सबसे अधिक विवादास्पद प्रश्न यह है कि ज्ञान आत्मा का निजगुण है अथवा आगन्तुक गुण ? आत्मा ज्ञान स्वरूप है, ज्ञानमय है इसको भारत का प्रत्येक अध्यात्मवादी दर्शन स्वीकार करता है । न्याय और वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आत्मा का असाधारण गुण स्वीकार करते हैं, परन्तु उनके यहाँ वह आत्मा का स्वाभाविक गुण न होकर आगन्तुक गुण है । उक्त दर्शनों के अनुसार जब तक आत्मा की संसार अवस्था है तब तक ज्ञान आत्मा में रहता है परन्तु मुक्त अवस्था में ज्ञान नष्ट हो जाता है। इसके विपरीत सांख्य और वेदान्त दर्शन ज्ञान को आत्मा का निजगुण स्वीकार करते हैं। वेदान्तदर्शन में एक दृष्टि से ज्ञान को आत्मा कहा गया है। वेदांत में कहा गया है-"विज्ञानं ब्रह्म" विज्ञान ही ब्रह्म है, परमात्मा है । और उसके आगे कहा है "तत्वमसि"-तू वह है, अर्थात् तू ही ज्ञान है और तू ही परमात्मा है।
जैनदर्शन में आत्मा के लक्षण और स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म, गम्भीर और व्यापक विचार किया गया है । आत्मा जैनदर्शन का मूल केन्द्र बिन्दु रहा है, जैनदर्शन और जैन संस्कृति का प्रधान सिद्धान्त रहा है-आत्मस्वरूप का प्रतिपादन और आत्मस्वरूप का विवेचन। जैनदर्शन की भाषा में ज्ञान ही आत्मा है । भगवान् महावीर ने आचारांग सूत्र में स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि
"जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया ।"
अर्थात्-जो ज्ञाता है वही आत्मा है और जो आत्मा है वही ज्ञाता है । आत्मा ज्ञान स्वरूप है । जहां आत्मा का अस्तित्व नहीं, वहाँ ज्ञान का भी अस्तित्व नहीं। सूर्य और उसके प्रकाश को कभी पृथक् नहीं किया जा सकता वैसे आत्मा से ज्ञान को पृथक् नहीं किया जा सकता। जहां अग्नि है, वहीं उष्णता है । जहाँ मिश्री है वहाँ मिठास है। जहाँ आत्मा है वहां ज्ञान है । आत्मा और ज्ञान का सम्बन्ध एकपक्षीय नहीं उभय पक्षी है । जहाँ-ज्ञान है वहाँ आत्मा है
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