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भारतीय दर्शनों में आत्मतत्त्व
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सेण्ट थोमस एक्विनस (Saint Thomas Aquinas) के अनुसार आत्मा अमर है । इनका मत है कि सृष्टि का, मानव-आत्मा का, और फरिश्तों का निर्माण परमात्मा ने किया है। मानव-आत्मा अपार्थिव है । देह के विलय होने पर आत्मा कार्यशील रहती है।
आधुनिक विचारक डेकार्ट (Descartes), लॉक (Locke), बर्कले (Berkeley) ने प्लेटो तथा अरस्तु के आत्मतत्त्व के सिद्धान्त को पुनर्जीवित किया है । डेकार्ट ने आत्मा को एक आध्यात्मिक तत्त्व माना है, जिसका स्वाभाविक गुण, चिन्तन अथवा चेतन है। डेकार्ट का, आत्म-अस्तित्व को प्रमाणित करने वाला एक प्रसिद्ध सूत्र है"Cogito ergo sum." I think, therefore I am. मैं सोचता हूँ इसी कारण मेरा अस्तित्व है । लॉक का भी कथन है कि आत्मा एक तत्त्व है, जो अनुभव करता है । वह आत्मा को एक चिन्तनशील तथा पुद्गल को अचिन्तनशील तत्त्व मानता है । बर्कले आत्मा को आध्यात्मिक तत्त्व मानता है, जो विचारों का प्रत्यक्ष करता है, तथा उन पर क्रिया करता है । बर्कले का यह वक्तृत्व इस रहस्य को सूचित करता है कि "आत्मा शब्द से हमारा तात्पर्य उसी तत्त्व से है जो विचार करता है इच्छा तथा प्रत्यक्ष करता है।"
इस आत्मतत्त्व परम्परा (The soul substance theory) की डेविड ह्य म (David Hume) ने कड़ी आलोचना की। उसका तर्क रहा है कि आत्मतत्त्व के अस्तित्व के लिए कोई सबूत नहीं है । हमें इसका कोई ज्ञान भी नहीं है । हम उसे कभी प्रत्यक्ष भी नहीं कर सकते । यह तथाकथित आध्यात्मिक तत्त्व हमारी पकड़ में नहीं आता । फिर भी आत्मतत्त्व की कल्पना ह्यम ने मानसिक अवस्थाओं के क्रम रूप में की है। उसका आत्मविषयक प्रत्यय, आत्मा का अनुभवाधारित प्रत्यय (Empirical conception) है जो बौद्धदर्शन की भाषा में आत्म-विज्ञान सन्तान है ।
काण्ट ने आत्मविषयक प्राचीन सिद्धान्त की आलोचना की । इनका आत्मविषयक प्रत्यय (The theory of Nominal self) कहलाया है । आध्यात्मिक मत वालों (The Idealistic view) का यह कथन है कि आत्मा एक मूर्त आध्यात्मिक एकता है, जो मानसिक अवस्थाओं में अभिव्यक्त होती है । इसी तरह भौतिकवादी सिद्धान्त वालों (The Materialistic theories) में यूनानी भौतिकवादी डिमोक्राइटस ने कल्पना की कि आत्मा सूक्ष्मतर, स्निग्धतर तथा गोल परमाणुओं से बना हुआ है। प्रो० मेक्समूलर भी आत्मा के अस्तित्व में समर्थन करते हुए कहते हैं कि I am therefore I think. मेरा अस्तित्व है इसीलिए मैं सोचता हूं। मैकडानल, शॉपन हावर, लौसिंग हर्डर आदि पाश्चिमात्य चिन्तकों ने आत्मा की मौलिकता एवं अविनाशिता को स्वीकार किया है । अमूर्तिक आत्मा विचार का विषय है, वह भौतिक विज्ञान के बाहर की वस्तु है। पाश्चात्य दर्शनों में आत्मा का जो सविस्तार से वर्णन आया है वह मुख्यतः जड़ प्रकृति को समझने के लिये हैं, फिर भी इससे यह स्पष्ट होता है कि उनका आत्मा के अस्तित्व में विश्वास रहा है ।
भारतीय दर्शनों में आत्मा का अस्तित्व-चार्वाक्दर्शन के अतिरिक्त शेष सभी भारतीय दर्शन आत्मा के अस्तित्व के विषय में एक मत है। सभी भारतीय दर्शनों में आत्मतत्व को चेतनामय, ज्ञानमय और अनुभूति मय शक्ति-सम्पन्न स्वीकार किया है। इससे सिद्ध होता है कि भारतीय दर्शन का चिन्तन मूल में एक जैसा ही है । इसका मूल ध्येय भी सत् चित् आनंद की उपलब्धि है।
भारतीय चिन्तकों ने 'आत्मा' को सबसे ऊंचा स्थान दिया है । चैतन्य आत्मा का ही गुण या स्वरूप माना जाता है। हमारी क्रियायें या चेष्टाएँ सभी आत्मा के अधीन मानी जाती है। ऐसी स्थिति में आत्मतत्व के स्वरूप का क्रमिक विकास हमारे दर्शनों में समन्वय रूप में एकसूत्र में परस्पर सम्बद्ध हमें मिलता है। भारतीयदर्शन क्षेत्र में समुच्चय रूप से यह एक पूर्ण सत्य स्थापित किया गया है कि आत्मा अवश्यमेव है तथा अपरिमित शक्ति-सम्पन्न एवं अचिन्त्य स्वरूप वाले ईश्वर तत्व से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध है।
न्याय और वैशेषिकदर्शन आस्मा तथा ईश्वर को दोनों को पृथक्-पृथक् मानते हैं जबकि वेदान्त सांख्य आदि प्रमुख सम्प्रदाय आत्म तत्व में काल्पनिक भिन्नता बताते हुए दोनों को एक ही तत्व बताते हैं । न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्मा की अमरता में विश्वास रखते हैं किन्तु आत्मा को वे कूटस्थ-नित्य और विभू मानते हैं । आत्मा ज्ञाता, मोक्ता और कर्ता हैं । आत्मा अनंत तथा सर्व विद्यमान है । आत्मा की स्वरूप में अवस्थिति ही मोक्ष है।
सांख्यदर्शन भी चेतन की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उसे नित्य और विभू मानते हैं। इनकी दृष्टि में आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है, यह केवल ज्ञाता ही हैं, भोक्ता तथा क्रियाशील कर्ता नहीं।
मीमांसादर्शन भी आत्मा की अमरता को स्वीकार करता है। वेदान्तदर्शन में आत्मा. के स्वरूप का प्रतिपादन
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