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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
४. आर्यत्व - आर्य दशा का नाम आर्यत्व है। जिस देश में अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म की प्राप्ति हो उसे आदेश कहते हैं । इसके विपरीत जहाँ धर्म की उपलब्धि न हो वह अनार्य देश कहलाता है । मनुष्य जीवन प्राप्त कर लेने पर भी जीव को आर्य देश की प्राप्ति बड़ी मुश्किल से होती है । यह मोक्ष मन्दिर की चौथी पगडण्डी है । मोक्ष गति को प्राप्त करने वाले जीव को आर्य देश में उत्पन्न होना पड़ता है। आर्य देश में उत्पन्न हुए बिना वह मोक्ष मन्दिर को सम्प्राप्त नहीं कर सकता ।
५. उत्तम कुल-पिता के वंश को कुल कहते हैं । पितृपक्ष का उत्तम अर्थात् धार्मिक होना कुल की उत्तमता मानी जाती है, पैतृक परम्परा से धार्मिक संस्कारों का प्राप्त न होना कुल की हीनता होती है । आर्य देश में उत्पन्न होकर भी बहुत से जीव नीच एवं हीन कुल में उत्पन्न हो जाते हैं । वहाँ पर उन्हें धर्माराधन के समुचित अवसर तथा सामग्री प्राप्त नहीं होने पाती । अतः मोक्षाराधना को सफल बनाने के लिए जहाँ पर आर्य देश में जन्म लेना आवश्यक है, वहाँ पर उत्तम कुल में उत्पन्न होना भी बहुत जरूरी है । इसीलिए उत्तम कुल को मोक्ष के मन्दिर की पांचवीं पगडण्डी माना गया है।
६. उत्तम जाति - जननी के वंश को जाति कहा जाता है। मातृपक्ष का निष्कंलक एवं आध्यात्मिक होना जाति की उत्तमता तथा उसका अप्रमाणिक, भ्रष्टाचारी, हिंसक, अधार्मिक एवं निन्दित होना जाति की होनता समझी गई है। उत्तम कुल की प्राप्ति कर लेने पर भी बहुत से जाति की उपेक्षा से हीन होते । परिणामस्वरूप मातृ जीवन के बुरे संस्कारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते । अतः जाति की हीनता मोक्षाराधना में विघातक होती है । मोक्ष की उपलब्धि के लिए जाति का उत्तम होना भी अत्यावश्यक है । इसीलिए उत्तम जाति को मोक्ष मन्दिर की छठी पगडण्डी स्वीकार किया गया है।
७. रूप-समृद्धि और कान आदि पांचों इन्द्रियों की निर्दोषता एवं परिपूर्णता का नाम रूप-समृद्धि है। पहली पगडण्डियों को पार कर लेने पर भी मोक्षसाधना को सम्पन्न करने के लिए श्रोत्रादि इन्द्रियों का निर्दोष एवं परिपूर्ण होना अत्यावश्यक है। इन्द्रियों की सदोषता एवं अपूर्णता रहने पर मोक्ष की आराधना भली-भाँति सम्पन्न नहीं होती। उदाहरणार्थ, श्रोत्रेन्द्रिय के हीन होने पर अध्यात्म-शास्त्रों के श्रवण का लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय की सदोषता होने से जीव दिखाई नहीं देते। जीवों के अदृष्ट रहने पर उनका संरक्षण नहीं हो पाता, हाथ और पाँव आदि अवयवों की अपूर्णता एवं शरीर की अस्वस्थता के कारण धर्माराधन से वञ्चित रहना पड़ता है। इस लिए पाँचों इन्द्रियों का परिपूर्ण एवं निर्दोष मिलना बहुत जरूरी है। तभी मोक्ष साधना सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकती है । मोक्ष मन्दिर की सातवीं पगडण्डी की यही उपयोगिता है ।
८. बल-शक्ति का नाम है। मोक्ष साधना में शक्ति का भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है । उपरोक्त समस्त साधन सामग्री के सम्प्राप्त हो जाने पर यदि साधक के शरीर में या श्रोत्र आदि इन्द्रियों में बल न हो, शक्ति का अभाब हो तो वह अहिंसा आदि धर्म साधन की आराधना नहीं कर सकता। सभी जानते हैं कि टाँगों में चलने की क्षमता न हो तो व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकता। जैसे सांसारिक प्रवृत्तियों को सम्पन्न करने के लिए बल इसकी अत्यधिक उपयोगिता है । इसके अभाव में मोक्ष प्राप्ति का इसलिए बल को मोक्ष मन्दिर की आठवीं पगडण्डी स्वीकार किया
की आवश्यकता रहती है वैसे मोक्ष साधना में भी संकल्प कभी साकार रूप ग्रहण नहीं कर सकता। गया है ।
६. जीवित- आयु की दीर्घता का नाम दीर्घायु है । व्यवहार जगत में देखा जाता है, जो व्यक्ति जन्म लेने के साथ ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है, वह धर्मसाधना क्या कर सकता है ? वस्तुतः जीवन के अस्तित्व के साथ ही सब कार्य किए जा सकते हैं, अन्यथा नहीं । अतः मोक्ष साधना की आराधना के लिए भी दीर्घायु का होना अत्यावश्यक है । इसीलिए 'जीवित' को मोक्ष मन्दिर की नौवीं पगडण्डी माना गया है ।
१०. विज्ञान - जीव और अजीव आदि पदार्थों का गम्भीर एवं विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान कहलाता है। मोक्षसाधना में विज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्ञानविहीन जीवन नयनों का अस्तित्व रखने पर भी अन्धा होता है । भगवान महावीर के "पढमं णाणं तत्रो दया" ये शब्द ज्ञान की महत्ता अभिव्यक्त कर रहे हैं । भगवद्गीता में- " नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" यह कहकर वासुदेव कृष्ण ने पाण्पुत्र अर्जुन को ज्ञान की महिमा एवं गरिमा ही समझाई थी। इसीलिए जैनधर्म ने विज्ञान को मोक्ष मन्दिर की दसवीं पगडण्डी स्वीकार किया है। दीर्घ आयु प्राप्त
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