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जैन-दर्शन में जीव-तत्त्व
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और इन्द्रिय को प्रत्येक जीव पूर्ण करता ही है । क्योंकि उक्त तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही जीव अगले भव का आयुष्य बाँध सकता है । इन तीन की अपेक्षा से तो प्रत्येक जीव पर्याप्त होता है।
फिर पर्याप्त और अपर्याप्त की व्याख्या क्या है ? स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करे, वह पर्याप्त । स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न करे, वह अपर्याप्त । जैसे एकेन्द्रिय जीव के स्वयोग्य पर्याप्ति चार हैं । इन चार को पूर्ण करने वाला पर्याप्त और पूर्ण न करने वाला अपर्याप्त होता है । पर्याप्त के दो भेद है-लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त । जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को अभी पूर्ण नहीं किया, किन्तु पूरा अवश्य करेगा, वह लब्धि (शक्ति) की अपेक्षा से लब्धि-पर्याप्त कहा जाता है । जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण कर लिया, वह करण (क्रिया) की अपेक्षा से करण-पर्याप्त कहा जाता है । करण का अर्थ इन्द्रिय भी होता है । जिस जीव ने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण करली, उसे करण पर्याप्त कहते है। इस प्रकार लब्धि पर्याप्त, अवश्य ही करण-पर्याप्त होकर ही मरता है । परन्तु करण-पर्याप्त का वास्तविक अर्थ यही है, कि जिसने स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण की हैं, वह करण-पर्याप्त है । जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया,
और करेगा भी नहीं, वह लब्धि (शक्ति) से अपर्याप्त है-लब्धि अपर्याप्त है । जिसने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया, किन्तु अवश्य करेगा, वह करण (क्रिया) से अपर्याप्त है-करण अपर्याप्त है । यहाँ पर इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि देव और नारक कभी लब्धि अपर्याप्त नहीं होते, पर करण अपर्याप्त होते हैं । मनुष्य और तिर्यञ्च लब्धि अपर्याप्त और करण अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं । यह पर्याप्ति का स्वरूप है।
प्राण का स्वरूप प्राण जिसमें हों, वह प्राणी है । प्राणी का अर्थ है-जीव एवं आत्मा । प्राण एक शक्ति है, जिसके संयोग से प्राणी जीवित रहता है, और जिसके वियोग से प्राणी मर जाता है। प्राण शक्ति से जीवन रहता है, और प्राणों का घात होने से मरण होता है। प्राण-शक्ति प्रत्येक जीव में रहती है। जीव तो सिद्ध भी हैं। क्या उनमें भी प्राण होते हैं ? प्राण तो सिद्ध में भी होते हैं, किन्तु उनमें द्रध्य-प्राण नहीं, भाव प्राण होते हैं ।
प्राण के भेद प्राण-शक्ति के दो भेद हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । जिसका अतिपात (विघात) हो सके, वह द्रव्य प्राण है, और जिसका अतिपात न हो सके, वह भाव प्राण होता है । भाव प्राण के चार भेद है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य (आत्म-शक्ति)। सिद्धों में क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक चारित्र और अनन्त वीर्य होता है। अतः सिद्धों में भी प्राण-शक्ति अवश्य ही रहती है। द्रव्य प्राण के दश भेद है—पाँच इन्द्रिय, तीन बल (योग), श्वासोच्छ्वास और आयुष्य । इन्द्रिय, योग एवं श्वासोच्छ्वास का स्वरूप बताया जा चुका है। श्वासोच्छ्वास को आन-पान (आण-प्राण) भी कहते हैं । जिसका अर्थ है-साँस अन्दर लेना और सांस बाहर छोड़ना । इस प्रकार पाँच इन्द्रिय-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र, तीन बल-मनोबल, वचनबल एवं काय बल, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य-इन सबको मिलाकर दश प्राण होते हैं । ये दश प्राण संसारी जीवों में होते हैं । इसी आधार पर उन्हें प्राणी कहा जाता है, इन दश प्राणों को द्रव्य प्राण कहने का अभिप्राय यह है, कि ये सब पौद्गलिक हैं, पुद्गल से बने हुए हैं।
___ आयुष्य-प्राण: दश प्रकार के द्रव्य प्राणों में सबसे मुख्य प्राण आयुष्य प्राण है। आयुष्य प्राण के रहते हुए ही अन्य प्राण अपना कार्य करते हैं । आयुष्य प्राण के क्षय होते ही, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास सब चेष्टा-रहित हो जाते हैं। अतः द्रव्य प्राणों में आयुष्य प्राण ही सबसे मुख्य एवं महत्त्वपूर्ण है। आयुष्य प्राण को ही जीवन-शक्ति कहा जाता है। आयुष्य प्राण क्या है ? जिसके अस्तित्व से प्राणी जीता है, और जिसके क्षय होने से प्राणी मर जाता है, वह आयुष्य प्राण है।
आयुष्य के भेद : आयुष्य प्राण के चार भेद हैं-नारक आयुष्य, तिर्यञ्च आयुष्य, मनुष्य आयुष्य और देव आयुष्य । एक अन्य प्रकार से भी आयुष्य के दो भेद होते हैं-अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । अपवर्तनीय का क्या अर्थ है विष, शस्त्र आदि बाह्य निमित्त से और रोग आदि अन्तरंग निमित्त से जिस आयुष्य की स्थिति घट जाती है, उसको अपवर्तनीय आयुष्य कहते हैं । अनपवर्तनीय का क्या अर्थ है ? उक्त बाह्य और अन्तरंग निमित्तों से जो न घटे, उसको अनपवर्तनीय आयुष्य कहते हैं। अनपवर्तनीय आयुष्य के दो भेद हैं-सोपक्रम और निरुपक्रम । सोपक्रम का क्या अर्थ है? आयुष्य के घटने के निमित्त को उपक्रम कहते हैं । उपक्रम सहित जो हो, वह सोपक्रम । उपक्रम रहित जो हो, वह निरुपक्रम । आयुष्य के घटने के निमित्त मिलने पर भी जो आयुष्य कभी न घटे, वह सोपक्रम अनपवर्तनीय आयुष्य होता है । जिसमें
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