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जैन-दर्शन में जीव-तत्त्व
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है आकारक कर चलने वाजीव, जैसे नकुल, पतञ्च जं
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में चलने वाले अथवा जल में रहने वाले जीव । जैसे मत्स्य, कच्छप, ग्राह और मकर आदि । स्थलचर का अर्थ है-- भूमि पर चलने वाले अथवा भूमि पर रहने वाले जीव । जैसे गज, अश्व, गाय, भैंस एवं बकरी आदि । खेचर का अर्थ है-आकाश में चलने वाले एवं आकाश में उड़ने वाले जीव । जैसे कपोत, शुक, चातक और मयूर आदि । परिसर्प का अर्थ है-सरक कर चलने वाले जीव । उस के दो भेद हैं-उर से चलने वाले जीव, जैसे सर्प, अजगर एवं अलसिया आदि
और भुजाओं से चलने वाले जीव, जैसे नकुल, मूषक, गिलेहरी आदि । तिर्यञ्च जीवों का विस्तार बहुत है । परन्तु यहाँ पर संक्षेप में ही उनका वर्णन किया गया है। तिर्यञ्च जीव संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त हैं। तिर्यञ्च गति में रहने वाले तिर्यञ्च होते हैं।
मनुष्य गति नामकर्म के उदय से मनुष्य को मनुष्य जीवन मिलता है। नरक और तिर्यञ्च की अपेक्षा तो मनुष्य गति श्रेष्ठ है ही, किन्तु देवगति की अपेक्षा भी मनुष्यगति को श्रेष्ठ मानने का कारण यह है कि इसमें अध्यात्म-विकास पूर्णता को पहुँच जाता है। अतः अन्य गतियों में मनुष्य गति श्रेष्ठ है । मोक्ष की साधना, मनुष्य जीवन से ही की जा सकती है । स्वर्ग के देव भी मनुष्य जीवन की अभिलाषा करते हैं । धर्म की साधना हेतु मनुष्य जीवन से बढ़ कर अन्य कोई जीवन नहीं है।
मनुष्य को दो भागों में विभाजित किया गया है-आर्य और अनार्य (म्लेच्छ)। आर्य कौन है ? जो हिंसा आदि दोषों से दूर रहता है, वह आर्य है, इस के विपरीत जो हो वह अनार्य है । आर्य के दो भेद हैं-ऋद्धि प्राप्त और अऋद्धि प्राप्त । ऋद्धि प्राप्त के यह भेद हैं-तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, विद्याधर और चारण । अऋद्धि प्राप्त आर्य के नव भेद हैं-क्षेत्र आर्य, जाति आर्य, कुल आर्य, कर्म आर्य, शिल्प आर्य, भाषा आर्य, ज्ञान आर्य, दर्शन और चारित्र आर्य । गुण और कर्म के आधार पर ही ये सब भेद किए गए । मनुष्य कहाँ रहते हैं ? कर्मभूमि, भोगभूमि और अन्तर द्वीपों में । कर्मभूमि किसे कहते हैं ? जहाँ पर असि, मसी और कृषि का व्यवहार चलता है, वह कर्मभूमि है। अथवा जहाँ पर मोक्ष और उसका मार्ग बताने वाले तीर्थंकर अवतार लेते हैं, वह कर्म भूमि है। इसके विपरीत जहाँ पर तीर्थकर नहीं होते, तीन प्रकार का व्यवहार नहीं होता, वह भोगभूमि है। भोगभूमि के मनुष्यों को युगल कहते हैं । जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्कराध द्वीप-इन अढ़ाई द्वीपों में जो पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह हैं, इन पन्दरह को कर्मभूमि कहते हैं । पांच उत्तर कुरु, पांच देव कुरु, पांच हैमवत, पाँच हरि, पाँच रम्यक और पांच हैरण्यवत्-ये तीस भोगभूमि हैं । जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिण और उत्तर में, हिमवान् एवं शिखरी पर्वत हैं, उनके पूर्व और पश्चिम में गजदन्ताकार नोक निकले हुए हैं, एक-एक नोक पर सात-सात अन्तर्वीप हैं । इनकी संख्या छप्पन है, इनमें युगल मनुष्य रहते है अतः ये भी भोगभूमि हैं।
भौतिक सुख और भौतिक समृद्धि की अपेक्षा देव गति, मनुष्य गति से श्रेष्ठ है। पुण्य के प्रकर्ष से देवगति प्राप्त होती है । देवगति नामकर्म के उदय से देवगति मिलती है। देवगति में परिणाम शुभ और लेश्या शुभ होती है । समृद्धि और ऋद्धि की अपेक्षा से ही मनुष्य जीवन से देव जीवन को श्रेष्ठ माना गया है। देवों का वैक्रिय शरीर होता है, जिससे वह चाहे जैसा रूप बना लेता है । देवों के चार भेद हैं-भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ।
भवनों में रहने वालों को भवनपति कहते हैं । भवनपति के दश भेद हैं—असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, मेघकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । विविध प्रकार के प्रदेशों में एवं शून्य वन प्रान्तों में रहने वालों को व्यन्तर कहते हैं । व्यन्तर देवों के आठ भेद हैं-भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, किंनर, किंपुरुष महोरग और गान्धर्व । ज्योतिष्क देव प्रकाशमय होते हैं। ज्योतिष्क देवों के पांच भेद हैंचन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा । अढ़ाई द्वीप में ये पांचों चर होते हैं, और अढ़ाई द्वीप से बाहर अचर (स्थिर) होते हैं । विमानों में रहने वाले देवों को वैमानिक कहते हैं। वैमानिक देवों के दो भेद हैं-कल्पोपन्न और कल्पातीत । कल्पोपन्न में स्वामी और सेवक भाव रहता है। किन्तु कल्पातीत में इस प्रकार का व्यवहार नहीं रहता है । कल्पोपन्न के बारह भेद हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । कल्पातीत के दो भेद हैं— वेयक और अनुत्तर विमान । वेयक देवों के नव भेद हैं-सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मरुत और अरिष्ट । अनुत्तर के पांच भेद हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध । ये सब देवों के भेदों का वर्णन किया गया है। एक अन्य प्रकार से भी देवों का भेद किया गया है। देव के पांच भेद हैं-द्रव्य देव, नर देव, धर्म देव, देवाधिदेव और भाव देव । देवरूप में उत्पन्न होने वाला जीव, द्रव्य देव है । चक्रवर्ती को नरदेव कहते हैं। साधु को धर्म देव कहते हैं। तीर्थंकर को देवाधिदेव कहते हैं । देवों के चार निकाय भाव देव हैं।
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