________________
जैन-वर्शन में जीव-तत्त्व
२६१
.
जीव कर्मरूप पुद्गल का कर्ता है, अशुद्ध निश्चय नय से जीव राग-द्वेष आदि विभाव भावों का कर्ता है और शुद्ध निश्चय नय से जीव शुद्ध ज्ञान एवं शुद्ध दर्शन आदि शुद्ध स्वभावों का कर्ता भी है। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों को द्रव्य कर्म क्यों कहते हैं ? इसलिए कि ये आठों कर्म पुद्गल रूप कार्मण-वर्गणा से निष्पन्न होते हैं। राग-द्वेष आदि को भाव कर्म क्यों कहते हैं ? इसलिए कि राग और द्वेष जीव के विकारी भाव हैं। परन्तु ये जीव में ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए भाव कर्म कहे जाते हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्म तो समझ में आगया। किन्तु नोकर्म क्या होता है ? औदारिक आदि शरीरों के योग्य और आहार आदि पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को नोकर्म कहते हैं। दूसरे शब्दों में कर्म को फल देने में सहायता करता है, उसे नोकर्म कहते हैं। जीव में द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का कर्तृत्व है। अतः जीव कर्ता है।
शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय का स्वरूप क्या है ? जो नय कर्मजन्य बन्ध, उदय एवं सत्ता आदि-उपाधि की अपेक्षा न रखकर केवल द्रव्य के मूल स्वरूप को ग्रहण करता है, वह शुद्ध निश्चयनय कहलाता है। जो नय कर्मजन्य बन्ध एवं उदय आदि उपाधि की अपेक्षा रखकर द्रव्य के स्वरूप को ग्रहण करता है, वह अशुद्ध निश्चय नय होता है । अशुद्ध निश्चय नय और व्यवहार नय में क्या भेद है ? पर-निमित्तजन्य अवस्था से संयुक्त द्रव्य को ग्रहण करने वाला, अशुद्ध निश्चय नय होता है । परन्तु व्यवहार नय तो अन्य द्रव्य के गुणों को दूसरे द्रव्य में आरोप करने से होता है । व्यवहार नय का आधार लोक-व्यवहार होता है। पर लोक-व्यवहार कभी पदार्थभूत नहीं होता। अतः लोक-व्यवहार को विषय करने वाला व्यवहार नय असद्भूत होता है।
जीव का भोक्तृत्व ___ व्यवहार नय से जीव सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्मों के फल को भोगता है और निश्चयनय से जीव अपने चैतन्य भाव को ही भोगता है। जीव का भोक्तृत्व यहाँ पर तीन प्रकार से बताया गया है-व्यवहार नय से जीव कर्म उदय जन्य सुख और दुःख का भोक्ता है, अनुकूलवेदन को सुख कहते हैं और प्रतिकूल वेदन को दुःख । अशुद्ध निश्चय नय से जीव अपने राग-द्वेष रूप विभाव भावों का भोक्ता है। इसी प्रकार हर्ष और विषाद आदि भावों का भी भोक्ता है। शुद्ध निश्चय नय से जीव अपने विशुद्ध भावों का भोक्ता है। वे विशुद्ध भाव कौन से हैं। श्रद्धान, ज्ञान और आचरण । अतः कर्तृत्व के समान भोक्तृत्व भी जीव का निज स्वरूप ही है।
जीव का अमूर्तत्व वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को मूर्ति कहते हैं । जिसमें मूर्ति हो, वह मूर्त और जिसमें न हो, वह अमूर्त है। जीव में ये नहीं होते, अतः जीव अमूर्त है । निश्चय नय से जीव में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं होते हैं। परन्तु संसारी अवस्था में कर्मबद्ध होने के कारण व्यवहार नय से जीव मूर्त भी है। जिस समय जीव अपनी साधना के द्वारा अपने आप को कर्म के बन्धनों से सर्वथा विमुक्त कर लेता है, उस समय वह अमूर्त हो जाता है। मूर्त अवस्था विकारी अवस्था है और अमूर्त दशा, शुद्ध दशा है।
स्वदेह-परिमाण समुद्घात अवस्था को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में, जीव व्यवहार-नय से स्वदेह-परिमाण वाला होता है। क्योंकि संकोच और विकास जीव का स्वभाव है। परन्तु निश्चय नय से जीव असंख्यात प्रदेशी है, लोकव्यापी है। उसका संकोच और विकास कर्मों पर आधारित होता है। पुद्गल के अविभागी अंश को परमाणु कहते हैं । आकाश के जितने स्थान को एक परमाणु घेरता है, उसे प्रदेश कहते हैं। लोकाकाश असंख्यात प्रदेश वाला है, और एक जीव के भी असंख्यात ही प्रदेश होते हैं । अतः जीव में लोक-पूरण की शक्ति होती है। किन्तु जीव के प्रदेशों में संकोच और विकास कर्मोदय से प्राप्त होता है । इसी आधार पर जीव को स्वदेह-परिमाण कहा जाता है। जीव में संकोच एवं विकास दीपक के प्रकाश के समान होता हैं । समुद्घात क्या होता है ? अपने मूल शरीर में रहते हुए जीव के आत्मप्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। यह क्यों होता है ? वेदना, मरण एवं कषाय आदि के कारण । किन्तु केवलि-समुद्घात में आत्म-प्रदेश सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं । यह तब होता है, जबकि भोगावली कर्म अधिक हों, और आयुष्य कर्म के दलिक अल्प होते हैं ।
ऊर्ध्वगमन स्वभाव जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है । जिस प्रकार अग्नि की शिखा स्वभावतः ही ऊपर की ओर जाती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म-रहित होकर स्वभावतः ऊपर की ओर ही गमन करता है। संसारी अवस्था में जीव ऊर्ध्वगमन क्यों
को छोड़कर
। परन्तु निश्चय नय से
अंश को परमाणु कहते हैं। जीव के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org