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२६२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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जैनदर्शन की निक्षेप-पद्धति
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* उपाध्याय श्री मधुकर मुनि
सांसारिक संरचना के मौलिक आधार दो हैं—अजीव और जीव । इनमें से अजीव ज्ञेय है । वह ज्ञाता के ज्ञान के द्वारा जाना, देखा जाता है और प्रयोग-व्यवहार में आता है । यह सामर्थ्य उसमें नहीं है कि कभी भी जानने देखने आदि की योग्यता, क्षमता प्राप्त कर सके। जबकि जीव ज्ञाता है, विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता, दृष्टा और उनको अपने व्यवहार में उपयोग करने का अधिकारी है ।
अवस्था की दृष्टि से जीव के भी दो भेद हैं, संसारी और मुक्त | मुक्त जीव तो त्रिकालवर्ती पदार्थों के स्वतन्त्रज्ञाता दृष्टा हैं । लेकिन संसारी जीवों को तो अपने प्रत्येक व्यवहार में पदार्थों का आश्रय लेना पड़ता है। वे बिना उनके अपना व्यवहार नहीं चला सकते हैं। पदार्थ के बिना लेन-देन नहीं होता है, जानना देखना नहीं होता । इसका तात्पर्य यह हुआ कि समूचा व्यवहार पदार्थ-आश्रित है। लेकिन पदार्थ अनेक हैं । उनका एक साथ व्यवहार नहीं होता है । वे अपनी-अपनी पर्यायों से पृथक्-पृथक् हैं अतः उनकी पहिचान भी अलग-अलग होनी चाहिए ।
संसारी जीवों में मानव श्रेष्ठतम है । उसे अनुभूति और अभिव्यक्ति करने की विशेष क्षमता प्राप्त है । पशु अनुभूति तो करते हैं, लेकिन भाषा की स्पष्टता न होने से वे उसे यथार्थरूप में अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं । जबकि मानव अपनी अनुभूति- विचारों को भाषा के माध्यम से सम्यक् प्रकारेण व्यक्त कर सकता है। विश्व का कोई भी व्यवहार बिना भाषा के नहीं चल सकता। पारस्परिक व्यवहार को अच्छी तरह से चलाने के लिये भाषा का अवलम्बन एवं शब्द प्रयोग का माध्यम अनिवार्य है। विश्व में हजारों भाषायें हैं और उन-उनके अपने लाखों शब्द हैं । अतः भाषा के ज्ञान के लिये शब्दज्ञान और शब्दज्ञान के लिये भाषा का परिज्ञान होना जरूरी है। किसी भी भाषा का सही बोध तभी हो सकता है जब हम उनके शब्दों का समुचित प्रयोग करना सीखें कि यह शब्द किस आशय को व्यक्त करने के लिये प्रयुक्त हुआ है ।
शब्दप्रयोग पदार्थ के लिये किया जाता है । स्वरूप की दृष्टि से पदार्थ और शब्द में कोई तादात्म्य नहीं है । दोनों अपनी-अपनी स्थिति में स्वतन्त्र हैं । लेकिन किस शब्द से कौन-सा पदार्थ समझना, इस समस्या को सुलझाने के लिये संकेत पद्धति का विकास हुआ, पदार्थों का नामकरण हुआ। कहने के लिये पदार्थ में शब्द की और शब्द में पदार्थ की स्थापना हुई। जिससे शब्द और अर्थ परस्पर सापेक्ष बन गये । समस्याओं के समाधानार्थ दोनों परस्पर कड़ी से कड़ी जैसे एक-दूसरे से जुड़कर श्रृंखलाबद्ध हो गये। दोनों का आपस में वाच्य वाचक सम्बन्ध बन गया कि अमुक शब्द इस पदार्थ का वाचक और यह पदार्थ इस शब्द का वाच्य है ।
शब्द और अर्थ का यह वाच्य वाचक सम्बन्ध भिन्नाभिन्न है । भिन्न इसलिये है कि अग्नि पदार्थ और अग्नि शब्द एक नहीं है । क्योंकि अग्नि शब्द का उच्चारण होने पर जीभ में दाह नहीं होता । अभिन्न इसलिये है कि अग्नि शब्द से अग्नि पदार्थ का ही बोध होता है, अन्य पदार्थ का नहीं। भेद स्वभाव-कृत है और अभेद संकेत-जन्य । लेकिन संकेत शब्द और पदार्थ को एकसूत्र में जोड़ देता है । अतः वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द का नियत अर्थ क्या है ? किस पदार्थ के लिये यह शब्द प्रयुक्त हुआ है ? इसको ठीक रूप में समझने का कार्य निक्षेप पद्धति है ।
निक्षेप की परिभाषा :
'निक्षेप' यह जैनदर्शन का एक लाक्षणिक शब्द है । पदार्थबोध के कारणों में से निक्षेप भी एक कारण है । अतः जैनदार्शनिकों ने विविध प्रकार से निक्षेप की लक्षणात्मक व्याख्यायें की हैं। जैसे कि 'युक्ति मार्ग से प्रयोजन
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