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चतुर्थ खण्ड : जैनदर्शन-चिन्तन के विविध आयाम
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जैन-न्याय का पुनर्वीक्षण
0 डा. संगमलाल पाण्डेय
M.A., Ph.D. [रीडर, दर्शन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
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बीसवीं शती के नैयायिकों ने सिद्ध कर दिया है कि न्यायशास्त्र या लाजिक का सीधा सम्बन्ध किसी विशेष तत्त्वमीमांसा या मेटाफिजिक्स से नहीं है । न्यायशास्त्र तत्त्वमीमांसा से स्वतन्त्र है और वह एक आकार शास्त्र (फार्मल साइन्स) है । जब भारतीय विद्वानों ने कहा था कि 'काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्' अर्थात् न्यायशास्त्र (कणादतर्कशास्त्र) और व्याकरण (पाणिनी-व्याकरण) सभी शास्त्रों के उपकारक हैं, तब उनका भी यही अभिप्राय था। जैसे व्याकरणशास्त्र सभी प्रकार के दर्शनों का उपकारक है वैसे ही तर्कशास्त्र या न्यायशास्त्र भी उन सबका उपकारक है। संक्षेप में सभी दर्शनों का एक ही न्यायशास्त्र है, जैसे उन सभी का एक ही व्याकरण है। अतः दर्शनों की विविधता से न्यायशास्त्र की विविधता नहीं सिद्ध होती है।
परन्तु मध्ययुग में साम्प्रदायिकता का बोलबाला होने के कारण भारत के प्रसिद्ध दर्शनों ने अपना-अपना तर्कशास्त्र भी बनाने का प्रयास किया। मोक्षाकर गुप्त (११०० ई०) ने बौद्धदर्शन के दृष्टिकोण से तर्कभाषा लिखी । केशव मिश्र (१२७५ ई०) ने न्याय-वैशिषिक दर्शन के अनुसार तर्कभाषा लिखी और यशोविजयजी (१६८८ ई०) ने जैनदर्शन के अनुसार तर्कभाषा लिखी। सम्प्रदायानुसार तर्कशास्त्र तथा न्यायशास्त्र पर ग्रन्थ लिखने की परम्परा आज भी बौद्धों, जैनियों और हिन्दुओं में देखी जा रही है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह प्रयास तार्किक नहीं है, इससे तर्कशास्त्र का विकास नहीं हो रहा है । अतः भारतीय दार्शनिकों को न्यायशास्त्र का पुनर्वीक्षण करना है। एक ही तर्कशास्त्र है; उसका विवेचन यदि किसी विशेष सम्प्रदाय का अनुयायी अपने सम्प्रदाय के ढंग से करता है तो तर्कशास्त्र का अहित करता है।
तर्कशास्त्र एक है-इसका अर्थ यह नहीं है कि बौद्धों, जैनों या अन्य भारतीय दर्शन के अनुयायियों ने तर्कशास्त्र में अपना विशिष्ट योगदान नहीं किया है। परन्तु अपना विशिष्ट योगदान करने पर भी कोई बौद्ध या जैन या वैदिक दर्शन का अनुयायी तर्कशास्त्र को अपने सम्प्रदाय का ही अंग बनाने में सफल नहीं हुआ है । तर्कशास्त्र की गति सभी सम्प्रदायों से गुजरती हुई भी वस्तुत: उनसे निरपेक्ष है ।
___ इस दृष्टि से जैन न्याय के पुनर्वीक्षण की विशेष आवश्यकता है, क्योंकि जैन नैयायिकों ने मूल रूप में बौद्धों तथा न्याय-वैशेषिकों के न्याय ग्रन्थों का अनुशीलन करके उनकी समीक्षा की और एक सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र तर्कशास्त्र की स्थापना का प्रयास किया। उन्होंने कहीं बौद्ध-न्याय का कोई सिद्धान्त माना तो कहीं न्याय-वैशेषिक का और कहीं अपना निजी सिद्धान्त सुझाया। इस दृष्टि से उन्होंने भारतीय न्यायशास्त्र का विकास किया जिसके परिप्रेक्ष्य में जैन न्याय का अनुशीलन करना विशेष रूप से वांछनीय है।
परन्तु अभी तक जैन-न्याय के जितने अनुशीलन हुए हैं उनमें यह भारतीय अथवा शुद्ध तार्किक दृष्टिकोण नहीं उभरा है। उन पर महामहोपाध्याय सतीशचन्द्र विद्याभूषण के ग्रन्थ "ए हिस्टरी आफ इण्डियन लाजिक" (भारतीय तर्कशास्त्र का इतिहास) का बड़ा प्रभाव रहा है। यह ग्रन्थ १९२० ई० में सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ था और अब यह परवर्ती शोध-निबन्धों के द्वारा कालातीत तथा अप्रामाणिक सिद्ध हो गया है। किन्तु फिर भी इसका प्रभाव
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