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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
जब तक कर्म है, आरम्भ है, हिंसा है तब तक संसार में परिभ्रमण है, दुःख है
आचारांग -१० यह तब रुक सकता है जब कर्म समारम्भ का परित्याग किया जाय, संसार के दुःख का प्रतिघात करने के लिए तथा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति के लिए भगवान ने कर्म समारम्भ के परित्याग का उपदेश दिया है मुनि वही है जिसने कर्म समारम्भ का त्याग किया है। -आचा० ६, १३
अपने को अणगार संन्यासी कहनेवालों को भी जीव हिंसा कैसे होती है इसका भान नहीं होता क्योंकि उनको जीव कहाँ है और कहाँ नहीं है इसका ही पता नहीं । अतएव आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में क्रमशः पृथ्वी, उदक (जल), अग्नि, वनस्पति, त्रसकाय और वायु ये स्वयं भगवान महावीर ने अपने साधना काल में ही जाना था कि ये छहों काय "चित्तमंत" सजीव हैं अतएव उनकी हिंसा से वे बचकर चले थे ।
-आचा० ६।१–१२, १३ छः जीवनिकाय हैं और उनकी विविध प्रकार से हिंसा मनुष्य अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए किस प्रकार करता है यह विस्तार से दिखाया गया है और कहा है कि
सव्वेसि पागाणं सव्वेसि भूवाणं सव्येति जीवाणं सम्बेसि सत्ताणं असायं अपरिभिव्वाणं महत्भयं दुश्वंति
-आचा० ५०
अर्थात् हिंसा के कारण सभी जीवों को जो दुःख है यही असाता है अपरिनिर्वाण है और महाभय है । इस महाभयरूप दुःख से मुक्ति पाने का एक ही उपाय है – कर्म समारम्भ - हिंसा का परित्याग अतएव सभी अर्हन्तों का तीर्थंकरों का उपदेश है
जे अईया जेय पडुपन्ना आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्स्वंति एवं भासंति एवं पर्णाविति एवं परूवन्ति सव्वे पाणा सब्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेयव्वा न परिषित्तव्वा न परियाया न उद्वेयन्या एस धम्मे सुद्धं निहए समिच्च लोयं यणे पवेइए... - आचा० १२६ । अर्थात् किसी भी जीव की किसी भी प्रकार से हिंसा न करनी चाहिए, किसी भी प्रकार से उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए । आचारांग में अहिंसा धर्म के लिए तो कहा गया है कि वह नित्य है (११२६) किन्तु पदार्थों के स्वरूप के विषय में खास कर भोग के साधन बनने वाले शरीर के लिए तो कहा है कि
पिच्छाभर धम्मं पासह एवं स्वसंधि
सूत्रकृतांग १, १, २, १० में भी कहा है- विद्ध सण धम्ममेव तं इयविज्जं कोऽगारमावसे यह वैसा ही निरूपण है जैसा कि बौद्ध साहित्य में भी देखा जा सकता है
सो एवं जाति को मे कायी रूपी पातुमहाभूतिको मातापेत्तिक संभव ओपो अनिच्छादन परिमदनभेदन विद्ध सन धम्मो । दीघ०....२०६५ ।
विद्धसण धम्ममथुनं अणिइयं असासवं पपावदचयं विपरिणाम-- आचारांग १४७
हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए उसके लिए ये दलील दी गई है—
(१) सच्चेपणा पिवळ्या गुहसाया दुखपडिला अप्पियवहा पिवजीवियो जीविकामा
-आचा० ८०
सव्वेसि जीवियं पियं सभी जीवों को जीना पसन्द है, सभी जीव लावादी है, दुख से द्वेष करते हैं, अपना व उन्हें अभिय है, जीवन से प्रेम करते हैं, जोने की इच्छा करते हैं अतएव उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए।
(२) तुमंस नाम सच्चैव तवं ति मनसि तुमंस नाम सच्देव जं अजायति मन्नति सम्हा न तन विधायए, अणुसवेयण गप्पाषेण जं हन्तम्वं नाभिपत्य - आचा० १६४ ।
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यह सारांश टीका के अनुसार है ।
जिसकी हिंसा करनी है वह तुम ही हो अतएव हिंसा न करनी चाहिए क्योंकि आत्मोपम्यक [इसके लिए समया (समता ) शब्द आचारांग में हैं (१०६, ११६) उसी के आधार पर सामाइय की कल्पना हुई है जिसका स्वरूप
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